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फ़रवरी, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सुख़नवर निकलेंगें © हेमा काण्डपाल

 अनवर,अव्वल और सुख़नवर निकलेंगें मेरे  बच्चे  मुझसे  बेहतर  निकलेंगें इक फूटी गागर से सागर निकलेंगें मेरे हर मिसरे से  लश्कर निकलेंगें कव्वा प्यासा मर जाएगा कलयुग में और घड़े में केवल कंकर निकलेंगें मिट्टी में मिल जाएगी जब ये दुनिया फिर इकबारी ओम से शंकर निकलेंगें ऊँचे लोगों की है ये फ़ीकी महफ़िल हम इक दो ग़ज़लें पढ़कर घर निकलेंगे  हँसते गाते सुंदर औ रंगीं चेहरे पास से देखोगे तो बंजर निकलेंगें बैठे  होंगे   रस्ते  में   दीदार  को  वो  हम भी घर से आज घड़ी भर निकलेंगे वर्षों पहले कोई शायर कहता था आने वाली नस्लों के पर निकलेंगें इतना विकसित हो जाएगा डी एन ए  देखना अब के पैरों से सर निकलेंगें   © हेमा काण्डपाल 'हिया'

शहर में आ रही हो ©गुंजित जैन

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 तुम शहर में आ रही हो, ट्रैन में इक, बैठकर के, कुछ नए लम्हें बनाकर, इस सफ़र में, इस सफ़र के। भा रही हैं ये हवाएँ, आज मौसम दिलकशी है, इस ख़बर को सुन के मेरे, सुर्ख़ गालों पर खुशी है। दिलनशीं सी खुशबुएँ हैं, बागबाँ दिल में खिला है, हर दुआ पूरी हुई है, फल ये सजदों का मिला है। धड़कनें धीमी रहेंगी, जब नज़र को तुम दिखोगी, साथ होगा अब तुम्हारा, हर छुअन महसूस होगी। मैं बखूबी जानता हूँ, तुम मुझे क्या मानती हो, घर सजा मैंने रखा है, बात ये क्या जानती हो? सोचकर तुमको ज़हन में, बेवजह मुस्का रहा हूँ, मुझको सब कुछ भा रहा है, मैं सभी को भा रहा हूँ। पेड़ के साये में चलकर, दूरियाँ हर नाप लेंगे, आसमाँ देखेंगे मिलकर, इन पहाड़ों पर चलेंगे। रख रखी है वो मिठाई, जो पसंदीदा तुम्हारी, हर कहीं खोजूँ तुम्हें मैं, हाय! कैसी बेक़रारी। चैन आएगा मुझे अब, सामने जब देख लूँगा, ज़िन्दगी के कुछ पलों में, ज़िन्दगी इक जी सकूँगा। रात की ये चाँदनी भी, रात-रानी सी खिलेगी, धड़कनें गुंजित के दिल की, आज गुंजित से मिलेगी। चंद हर्फ़ों की ज़मीं पर, बादलों सा छा रही हो, आज पहली बार मिलने, तुम शहर में आ रही हो। ©गुंजित जैन Click Here For Watch In Yo

बजरंग वंदना ©दीप्ति सिंह

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  छंद: मधुमालती  प्रत्येक चरण 14 मात्रा  पाँचवी एवं बारहवीं मात्रा लघु  चरणान्त रगण सुत केसरी सुत अंजना,करते तिहारी वंदना । बजरंग मारुति नंदना, करते तिहारी वंदना ।। श्री राम उर में सोहते, हनुमान हिय को मोहते। माँ जानकी प्रभु संग में, अंतर बसे बजरंग में । यह रूप दर्शन कामना, करते तिहारी वंदना ।। अपनी कृपा प्रभु दीजिये, संकट हमारो लीजिये। बजरंग अब तो रीझिये, स्वीकार विनती कीजिये। दारिद्र दुख भय भंजना,करते तिहारी वंदना ।। प्रभु आपका वरदान है,तो श्वास भी गतिमान है । हम आपकी संतान हैं, अंतर बसा अज्ञान है । कीजै प्रकाशित चेतना,करते तिहारी वंदना ।। तम जाल पर संधान हो,नव काल का निर्माण हो। प्रभु पथ प्रकाशित ज्ञान हो,सन्मार्ग पर उत्थान हो। है आपसे प्रभु याचना,करते तिहारी वंदना ।। © दीप्ति सिंह "दीया"

ग़ज़ल-नादाँ ©संजीव शुक्ला

 ज़िंदगी की जा-ब-जा फ़र्माइशों का क्या करें l वक्त की बेवक्त की इन..बारिशों का क्या करें ll साफगोई की बुरी फितरत से जो हासिल हुईं...  जा-ब-जा नाइत्तिफाकी,रंजिशों का क्या करें ll है हमारी ज़ुस्तज़ू ........... आवारगी नादानियाँ....  हैं अगर नादाँ तो हैं,हम दानिशों का क्या करें ll रास आता ही नही हमको कतारों का चलन....  साथ हैं पर कारवाँ की बंदिशों का क्या करें ll हैं परिंदे तो परिंदे...... गर कफस में हैं तो क्या... तिश्नगी परवाज़,उनकी ख्वाहिशों का क्या करें ll रास आयी जुगनुओं की मुख़्तसर सी रोशनी.... झील में  उतरे हज़ारों  महवशों का क्या करें ll "रिक्त"ठंडी बारिशों की.......चाहतें ले उम्र भर.... दम ब दम दिल में सुलगती आतिशों का क्या करें ll ©संजीव शुक्ला 'रिक्त'

बजरंग बली ©लवी द्विवेदी

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 जय कपीस जय वायु सुत जय आदिक अभिराम,  जय हनुमादिक रामप्रिय जय श्री कोटिहि काम।  मंगलमूरति राम को मानत पावन धाम,  जय बलवंतहि संतही जय जय जय प्रभु राम।  दुर्मिळ सवैया छंद बजरंग बली जिन तेज प्रताप महामुनि भक्ति सुधारस जे,  मुख कंज ललाट अलौकिक जे दृग देह विशाल कपी सुत के।  प्रभु प्रीति प्रतीति जगी मन सो प्रभु बाल कथा तिंहु अर्पण हे,  सुमिरौं पुनि बारमबार प्रभू जिन हीय बसे प्रभु राम सिये। सुत अंजनि कुंतल रूप रहे, प्रभु खेलत बेर कदम्बन में,  नित तोड़त थे मधु सस्य बली छिन हास्य रचे कपि आनन में। सहमित्र सखा लिय नित्य प्रभू रज रोज उचारत द्वारन में,  चलि चाल मनोहर पैजनि जे छनकार रही लय नूतन में।    प्रभु एक दिवा उठि भोर परे नहि मातु दिखी गृह आँगन में,  प्रभु केर क्षुधा अति तीव्र भई पर मातु नही जिंह भोजन दे।  सहि जात न भूख महाबलि से फल खोजि रहे दुइ नैनन से,  कछु लाल दिखा हिय आस जगी अति सुंदर सस्य कहाँ अरु हे।  प्रभु कीन्ह विचार मिलै फल जो घनघोर क्षुधा कर त्रास मिटै,  सकुचात नही कपि केरि क्षुधा बस कन्द मिलै भवबंद्ध छुटै।  छण आँगन भीतर डोलि रहे सुत चंचल द्वंदहि बीच परै,  बस एक मनोरथ लै कपि श्री रवि

चलना होगा ©शिवाँगी सहर

 सोच  कर घर  से  जब चला  होगा, जानता   ही  नहीं  कि  क्या  होगा। हो हक़ीक़त से  तुम  नहीं  वाकिफ़, ये  ग़लत  है  कि  सब  पता  होगा। जिसका  सच कटघरे  में  आया है, झूठ  शायद   कभी   कहा   होगा। यूँ  बहुत  सख़्त था वो  आदम पर, भावनाओं   में   बह   गया   होगा। दर्द   में   भी  जो   मुस्कराता    है, कितना अंदर  से  वो  भरा  होगा। मेरा   लिक्खा   हुआ  पढ़ा   उसने, ये   गलत    आपने   सुना   होगा। आँसुओ का  असर नहीं जिस पर, शख्श  पत्थर का फ़िर बना होगा। मील  पैदल  चला   सदा  सुनकर, कैसा  दिल को  भरम हुआ होगा। चाह  कर भी  न  माफ़ कर  पाए, उम्र  भर  एक  यही  गिला  होगा।    ©शिवाँगी "सहर"

छंद- श्रीकृष्ण ©रानी श्री

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 अदित्य नंदलाल विष्णु अच्युतं प्रियं भवं लला यशोमती च नंद श्याम वर्ण केशवं। हिरण्यगर्भ देवकी सुतं च देव नंदनं अनंतजीत माधवं नमामि प्रेम वंदनं। प्रियं मुखं प्रियं सुखं अनंत संग गोपिका  गृहं तु गोकुलं अनंतजीत राज्य द्वारिका। कलिंदजा तटे प्रमोद ग्वाल संग मोहनं चतुर्भुजं च धेनु दृश्य एक एव शोभनं।  कलादि षोडशं प्रवीण कृष्ण कांति सुंदरं मयूर पंख साज वेणु वाद रुक्मणी वरं। बकासुरं च पूतना च कंस काल तारकं निपात कालिया च पर्वतं कनिष्ठ धारकं। समीर अंबरं च पावकं जलं धरा सदा करं शुभं सुदर्शनं,सरोज,शंखकं गदा। वदामि सारथी रथं उपेन्द्र अर्जुनं कथा नमामि त्वं भजामि त्वं इदं परम् सुखं प्रथा। ©रानी श्री Click Here For Watch In YouTube

ग़ज़ल ©गुंजित जैन

 हैं किसी जाम की शफ़्फ़ाफ़ ख़ुमारी ज़ुल्फ़ें, क़त्ल करती हैं मिरा आज शिकारी ज़ुल्फ़ें। क्यों भला ज़ुल्फ़ यहाँ की नहीं लगती मुझको? क्या ज़मीं पर कहीं जन्नत से उतारी ज़ुल्फ़ें? बेवजह ही यूँ निगाहों को छुपा लेती हैं, रोज़ करती हैं शरारत ये तुम्हारी ज़ुल्फ़ें। क्या ज़रूरत है भला तुमको यहाँ सजने की, यूँ सजावट को तो काफ़ी हैं ये प्यारी ज़ुल्फ़ें। जाँ निकलने ही लगी थी तेरी उस दिन गुंजित, मुस्कराकर जो उन्होंने थी सँवारी ज़ुल्फ़ें। ©गुंजित जैन

छंद- महादेव ©रानी श्री

 छंद - पञ्च चामर  चरण - 4 (दो दो चरण समतुकांत) वर्ण - 16 मात्रा - 24 ISI SIS ISI SIS ISI S महेश पर्वते विराज धारणी महा प्रभा  प्रचंड चंड भूतले त्रिलोचनं मुखे विभा। भविष्य भूत वर्तमान काल चक्र सर्वदा विराजिता महा कपर्दिनी शिवा सती सदा l पिनाक हस्त नाग कंठ भस्म साज वंदनं विनाश तांडवं शिवं भजे शिलादनंदनं। हिमांशु सज्जितं नदीश्वरी जटे प्रवाहिता अखंड ज्योति पुंजिता मुखे धरा समाहिता। ©रानी श्री

मेरूदण्ड ©सौम्या शर्मा

 तुम बहुत नन्हें से थे! सुकोमल पांव तुम्हारे! जब आगे बढ़ने का प्रयास करते! लड़खड़ाकर गिर जाते थे तुम! पर तब वो बलिष्ठ हाथ! थाम लेते थे तुम्हें! वो उंगलियां पकड़ कर! कोमल हस्त तुम्हारा! चलना सिखाती थीं! आज ना! वही हाथ कांपते हैं! ढूंढते हैं सहारा तुम्हारा! तुम हो तो अच्छा है! पर नहीं हो तो बहुत बुरा है! क्योंकि वो बुजुर्ग जो ! परिवार और समाज के! मेरुदंड हैं! वो तुमसे कुछ नहीं चाहते! सिवाय दो पल पास बैठने के! उनका हाल- चाल पूछने के! उनके कांपते हाथों को थाम लेने के! फिर यह मत कहना ! कि सेवा का अवसर नहीं मिला! क्योंकि वो हमेशा नहीं होंगे! पर हां! देकर जाएंगे संस्कार! बच्चों को! अपनी छवि उनमें ही छोड़ जाएंगे! तुम्हारे पास इतना वक्त कहां !a कि कहानी भी सुना दो बच्चों को! यह जिम्मेदारी भी वही निभाते हैं! तुम हो तो अच्छा है! पर नहीं हो तो बहुत बुरा है!!   © सौम्या शर्मा

ग़ज़ल ©प्रशान्त

 क्या ख़्वाब ख़त्म होंगे 'ख़्वाब-ए-अदम' के बाद ? फिर इश्क़ में मिलूंगा मैं इस जनम के बाद l पहली नज़र से बिस्मिल दोनों हुए थे लेकिन,  हम भी सुकून से हैं, दिल भी ज़ख़म के बाद l जब इश्क़ कर रहा था तब क्यूँ खिलाफ़ थे वो ?  जो इश्क़ पढ़ रहे हैं, कागज़-कलम के बाद l इतने शरीफ़ तो हम पैदाइशी नहीं थे,  सब ऐब गुम हुए हैं उनकी क़सम के बाद ll हमको ज़ुदा करेगा अब ये जहान कैसे ?  हम-रूह बन चुके हैं हम, हम-क़दम के बाद l मेरा ज़ुदा तलफ़्फुज़, है शख्सियत उन्हीं की ,  मुझको 'ग़ज़ल' लिखा है, मैंने सनम के बाद l ©प्रशान्त

मतदान ©नवल किशोर सिंह

 अपनी ताकत को पहचान। ताकत तेरी है मतदान। सत्यनिष्ठ की शपथ उठाना। सोच-समझ कर मुहर लगाना। मत अपना देने से पहले, राष्ट्र-धर्म का रखना ध्यान। आए कोई पास शिकारी। रत्न-रजत से भरे पिटारी। चमक-दमक में भूल न जाना, चेतन का करना सम्मान। स्वार्थ बोध को ज़रा घटाकर। जाति-धर्म को दूर हटाकर। सुखद आज कल भी पुलकित हो, उँगली में धर वही निशान। -©नवल किशोर सिंह

उठो! ©अंशुमान मिश्र

 सुमेरु छंद ( 19 मात्रा प्रति चरण) ________ बंँधी  हैं  बेड़ियांँ  कर आज, तो क्या? अमा का आज भू  पर राज, तो क्या? नहीं सर पर किसी का हाथ, तो क्या? नहीं   कोई  खड़ा   है  साथ, तो क्या? बने   सम्बन्ध   ही  आबंध, तो क्या? बहुत  है भार, थकता कंध, तो क्या? नहीं  कोई  करे  स्वीकार, तो क्या? विरोधी यदि सकल संसार, तो क्या? अगर  रिपु  आत्म-संदेही  हृदय  है, विदित  हो, तब तुम्हारी हार तय है! उठो!  संसार   दर्शक   मात्र  सारा! उठो! यह  युद्ध  है  तुमसे  तुम्हारा! उठो छल-द्वेष-तम का काल बनकर, धधकती-सी उठो तुम ज्वाल बनकर, उठो!  उर  को  बना  कर्तव्य  शाला! उठो  बन  भोर! है  आकाश  काला! उठो!  संसार  ज्योतिर्मय करो  हे! उठो! हुंकार  बन  निर्भय  भरो हे! कि निज सम्मान आदर मांगता है! उठो! यह नभ दिवाकर मांगता है!        ©अंशुमान मिश्र

शारदे वंदना ©दीप्ति सिंह

छंद: मधुमालती  प्रत्येक चरण 14 मात्रा  पाँचवी एवं बारहवीं मात्रा लघु  चरणान्त रगण  वंदन करूँ माँ शारदे,  अर्चन करूँ माँ शारदे । निज भाव को आकार दे,  लेखन करूँ माँ शारदे । रस छंद का माँ ज्ञान दे,  लय शिल्प का वरदान दे । माँ लक्ष्य का संधान दे,  भेदन करूँ माँ शारदे । भाषा लिए संवेदना ।  प्रेरित करे जन भावना । किस-विधि जगे जन चेतना,  चिंतन करूँ माँ शारदे । परिणाम निर्मल जाप का, तम नाश हो संताप का । घट भर चुका है पाप का,  मंथन करूँ माँ शारदे । देवी असीमित ज्ञान की, रक्षा करो संतान की। अनुभूति माँ के ध्यान की, संचन करूँ माँ शारदे । ©दीप्ति सिंह "दीया"

दर्द ... कैनवास ©रेखा खन्ना

मेरे दर्द को इतना भी सस्ता ना समझो की बयां करते ही रूह तक महसूस हो जाए। गर महसूस करना ही है तो मेरे दर्द को कुछ लम्हें के लिए जी कर देखो।।  दर्द वो कैनवास है जिस पर रंगों का उतार चढ़ाव खुद-ब-खुद हो जाता है पर उन रंगों की परिभाषा को पढ़ लेना और समझ लेना हर किसी को नहीं आता है।  आँखों में छिपी वेदना को शायद पढ़ना आसान हो सकता है पर अगर दिल के दर्द को यां फिर आत्मा पर बंँधे हुए बोझ को एक तस्वीर में उतारा जाए तो क्या रंगों का चुनाव उस दुःख और दर्द को व्यक्त कर पाएगा जो मन को भीतर ही भीतर से चोट पहुंचा रहा है।  शायद हाँ और शायद नहीं भी क्योंकि रंगों के पीछे छिपे हुए उस एहसास को देखने और महसूस करने के लिए वो पारखी नजरें चाहिए जो तस्वीर के भीतर तक बैखौफ चली जाए उस अनमोल एहसास को खींच कर बाहर निकाल लाए। दर्द वो कैनवास है जो विभिन्न रंगों का एहसास तो कराता है पर अक्सर देखने वालों की आँखों से अपने एहसास को फिर छिपा जाता है और देखने‌वाला मात्र तस्वीर में बनी आकृति और खूबसूरत रंगों के चुनाव में ही खो कर रह जाता है। कभी कभी लगता है जैसे कि दर्द शायद पारदर्शी है तभी तो दिखता नहीं, और ना ही वजूद रखता

वर्ण मंजरी ©संजीव शुक्ला

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 वर्ण मंजरी को मिला आप सभी का स्नेह हृदय छू गया l समस्त लेखनी परिवार का ह्रदय से आभारी हूँ, आo. नवल सर, आo.दीप्ति सिंह जी, आo. सरोज बहन जी, आo. अनिता दीदी, प्रिय सर्व श्री प्रशांत जी,तुषार, अंशुमान, सूर्यम, विपिन जी, आशीष जी, प्रिय रानी,, प्रिय लवी,प्रिय सौम्या, रजनी जी,वंदना सिस,सुभागा सिस,अंजली आo. रेखा बहन,एवम लेखनी परिवार के अन्य समस्त प्रिय एवम आदरणीय जनों का वर्णमंजरी की ओर से मैं ह्रदय से आभार प्रकट करता हूँ l श्रीकृष्ण l 🙏🙏    ©संजीव शुक्ला 'रिक़्त'                                         Click Here For Watch In YouTube

गीतिका ©विपिन बहार

 जीवन मे तूफान बहुत है । जीने में नुकसान बहुत है ।। सब दिखते बरसाती मेढक । कहने को इंसान बहुत है ।। पीड़ा,आसूँ, चाहत,धोखा । मरने का सामान बहुत है ।। भूख,गरीबी खालीपन की । आपस मे पहचान बहुत है ।। खुद को समझे खुदा सरीखा । मानव को अभिमान बहुत है ।। आओ बहनों रौशन कर दो । घर मेरा सुनसान बहुत है ।। कौन सुनेगा भूखें मन की । वैसे तो दीवान बहुत है ।।    ©विपिन बहार

कान्हा ©सूर्यम मिश्र

 वैसे जग मा नाम बहुत है आपन एक घनश्याम बहुत है, मोहन मूरत गिरधारी की शोभित छवि श्री बनवारी की लट जैसे हैं मेघ मनोहर नयन रम्य ज्यों, गावें सोहर सबकौ सबका गोरा प्यारो आपन सांवर श्याम बहुत है मन मोरा त केशवमय है   मोसे वा का मिलना तय है  वा से हमरी चोखी यारी  आग लगे यो दुनिया दारी सबको जग भर प्यारा होगो  आपन गोकुल धाम बहुत है  थोड़ा वा से चित्त खिन्न है  लेकिन यो बस भाव भिन्न है  सखा देवता भाई मोरा  धूप छाँव परछाई मोरा  दुनिया वैसे सुंदर है पर  कन्हुआ वो अभिराम बहुत है  © सूर्यम मिश्र

ग़ज़ल ©शिवाँगी सहर

 आ  रहा  याद  जो   था   भुलाया  हुआ, इस क़दर कुछ  है मुझमें समाया  हुआ। देखते   हैं   सभी   मेरी  आँखों   को  यूँ, जिसको हमने था  सबसे बचाया  हुआ। लाख  पर्दा  करो  तुम  हक़ीक़त  से पर,  साफ़ दिखता  है जो  है  छिपाया हुआ। क़त्ल   इंसां  ने   धरती  पे  इतने  किये, आसमाँ   ख़ून   से   है   नहाया   हुआ। सोचते  हैं  कि   इक़रार  कर  लें  मगर, दिल किसी  का बहुत  है सताया हुआ। कौन  किसका  यहाँ साथ दे अब भला, हर  कोई है  किसी  का  रुलाया  हुआ। है  ख़बर हमको  मशगूल थे  तुम कहाँ, है    बहाना    तुम्हारा   बनाया    हुआ। चाँद  रातों  से  उल्फत बहुत  थी  सहर, चाँद   लेकिन   हमारा   पराया   हुआ l ©शिवाँगी  सहर