सुख़नवर निकलेंगें © हेमा काण्डपाल
अनवर,अव्वल और सुख़नवर निकलेंगें मेरे बच्चे मुझसे बेहतर निकलेंगें इक फूटी गागर से सागर निकलेंगें मेरे हर मिसरे से लश्कर निकलेंगें कव्वा प्यासा मर जाएगा कलयुग में और घड़े में केवल कंकर निकलेंगें मिट्टी में मिल जाएगी जब ये दुनिया फिर इकबारी ओम से शंकर निकलेंगें ऊँचे लोगों की है ये फ़ीकी महफ़िल हम इक दो ग़ज़लें पढ़कर घर निकलेंगे हँसते गाते सुंदर औ रंगीं चेहरे पास से देखोगे तो बंजर निकलेंगें बैठे होंगे रस्ते में दीदार को वो हम भी घर से आज घड़ी भर निकलेंगे वर्षों पहले कोई शायर कहता था आने वाली नस्लों के पर निकलेंगें इतना विकसित हो जाएगा डी एन ए देखना अब के पैरों से सर निकलेंगें © हेमा काण्डपाल 'हिया'