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कविता- सिया रूप ©ऋषभ दिव्येन्द्र

नमन माँ शारदे नमन लेखनी आधार छंद- सरसी छंद,  १६+११ अन्त में गुरु लघु अनिवार्य       जनकनंदिनीजय जग जननी, चरण-कमल सुख धाम। पग वन्दन मिथिलेश कुमारी,  सुमिरूँ  आठों  याम।। जनक दुलारी राघव प्यारी, महिमा अमिट अपार। परम दयामयि माँ ममतामयि, करतीं अवध विहार।। चमक चपल चंचल चितवन के, आनन  चन्द्र  समान। नारी नहीं सिया सम सुन्दर, अनगिन गुण  की  खान।। कोटि भानु सम मुख की आभा, कवि क्या करे बखान। सुन्दर कोमल तन पर सोहे,   नवल-धवल   परिधान।। शरद सुधाकर के सम निर्मल, अरुणकमल-सी कान्ति। निरख-निरख के थके न नयना, आनन अद्भुत शान्ति।। अंग-अंग सुचि सुषमा सागर, अतुल अचिन्त्य अनन्त। दशरथनन्दन सहित सुहातीं,  ज्यों  ऋतुराज  वसन्त।। सिय सुन्दरता जगत अलौकिक, लज्जित हो जलजात। दास करे क्या रूप निरूपण,   पुलकित   होता   गात।। सकल सुमंगल शुभ वर दात्री, निशि-दिन धरते ध्यान। जनक सुता रघुवर प्यारी की, ऋषभ  करे   जयगान।। ©ऋषभ दिव्येन्द्र

ग़ज़ल ©अंजलि

 नमन मां शारदे नमन लेखनी ज़माने की भी अलग ही रवायत है सब कुछ है  फिर भी शिकायत है। ज़रा संभल कर रहो इस ज़माने में, हुकुम नहीं साहब बस हिदायत है। दुनिया की भीड़ में वो साया अपना माँ महज़ एक शब्द नहीं इनायत है। भरे जो पेट, अपना पसीना बहाकर, मिलती उसे ब्याज  पर रिआयत है। ढूँढ लेता ज़माना छिपी कमियाँ भी, अजी  आदत नहीं ये तो  वसायत है। ©अंजलि 

गीत- प्रसून ©लवी द्विवेदी 'संज्ञा'

नमन, माँ शारदे नमन लेखनी मैं प्रेम में रँगी हुई फिरूँ, तू प्रेम को नकारता फिरे। मैं प्रेम भाव वारती फिरूँ, तू भाव खाय भागता फिरे। मिलिंद रूप व्यग्र गोपिका, प्रसून श्याम रंग ढूँढती, अरण्य पूर्ण खोज, हारकर, शिथिल पड़ी, धरा टटोलती। मैं आस जो समेटती फिरूँ, तू आस वो कचोटता फिरे। अनेक पुष्प जोह जोहकर, मालिका बनाई नेह की। परन्तु रे कठोर क्यों कभी, डेहरी न लाँघी गेह की। मैं द्वार नित बटोरती फिरूँ, तू नित कषाय फेंकता फिरे। कैसी है विडंबना किशन, माँग मेरी पूरी न करे। नाम है हरी परन्तु क्यों, अपनी प्यास को भी न हरे। मैं प्रेमपात्र माँगती फिरूँ, तू प्रेम पात्र ढूँढता फिरे। ©लवी द्विवेदी 'संज्ञा'

गोपी छंद- शिव शंकर ©रजनीश सोनी

नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी गोपी छंद  (आरती  जय शिवशंकर की)  15 मात्रिक छंद, आदि त्रिकल, अंत गुरु।  आरती  जय शिव शंकर  की।            स्वयंभू श्रृष्टि सृजनकर की।।  श्रृंग   कैलाश    निवासी  की।  जगत शिव पर विस्वासी की।।  वसन    बाघंबर   वाले   की। डमाडम   डमरू  वाले  की।।  आरती जय शिव शंकर  की।            स्वयंभू  श्रृष्टि सृजनकर की।।  जयति  जै  जै  त्रिनेत्र धारी। चन्द्रिका  माथ  लगे प्यारी।।  जटा   शुचि   गंगाधारी की। जयति  नन्दी असवारी की।।  आरती जय शिव शंकर की।            स्वयंभू श्रृष्टि सृजनकर की।।  कर्ण  वृश्चिक   कुंडल  सोहे।  माथ   चंदन   त्रिपुंड   मोहे।।  फवे   गलहार   भुजंगा  की।  देह  भर  भस्म  अनंगा  की।।  आरती जय शिव शंकर  की।            स्वयंभू श्रृष्टि सृजनकर की।।  सदा   वामाङ्ग    योगमाया।  इन्हीं के कारण जग भाया।।  जगत  भूतादिक  संगा की।  मगन मन  भंग तरङ्गा  की।।  आरती जय शिव शंकर की।              स्वयंभू श्रृष्टि सृजनकर की।।  ©रजनीश सोनी शहडोल

ग़ज़ल ©परमानंद भट्ट 'परम'

नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी याद कर बीते  पलों को ,हाय सिहर जाता हूँ मैं ज़ख़्म जो उसने दिये थे,रोज सहलाता हूँ मैं जब दिया थकने लगा इस तीरग़ी के सामने सूर्य बोला फ़िक्र मत कर,लौट कर आता हूँ मैं  हूँ भले नादान लेकिन,आज के इस दौर में  कब कहां धोखा मिलेगा,सब समझ पाता हूँ मैं  मैं तेरे दीदार को हर रोज़ आता हूँ यहां  बंद खिड़की देखकर फिर रोज पछताता हूँ मैं  भीड़ बहरों की यहाँ है,यह मुझे मालूम फिर यह समझ आया नहीं है,गीत क्यूँ गाता हूँ मैं  सैकड़ों पत्थर दिलों के,अक्स असली देखकर "एक शीशा हूँ कि हर पत्थर से टकराता हूँ मैं "  स्वर्ग क्या है नर्क कैसा,भेद जब जाना नहीं  उस 'परम'का नाम लेकर,क्यूँ ये समझाता हूँ मैं ©परमानन्द भट्ट

पञ्च-चामर छंद- श्रमिक ©संजीव शुक्ला 'रिक्त'

नमन, माँ शारदे नमन ,लेखनी  छंद - पंच चामर (वार्णिक) चरण - 4,मात्रा - 24,वर्ण - 16 जगण रगण जगण रगण जगण +S सहे सदैव त्रासदा, विपत्ति जो अपार है l अनेक  कष्ट  भोगता परन्तु जो उदार है ll श्रमादिजन्य स्वेद बिंदु देह का सिंगार है l परार्थ का स्वरूप, दीनता, श्रमावतार है ll निरीह दृष्टि से समाज को रहा निहार है l अतृप्त कंठ आर्त  वेदना भरी पुकार है ll प्रकाशवान गेह हों सभी यही विचार है l परन्तु पर्णधाम में  नितांत अन्धकार है ll वरीय अन्य काज,दी स्वयं व्यथा बिसार है l परोपकार जीविका रही....... न रंच रार है ll दरिद्रता दशा विपत्ति का..... न पारवार है l सहे दुरूह कष्ट,ताड़ना........कई प्रकार है ll अगाध नीर के समान शांत निर्विकार है l कठोर  देह  धारता कुदाल औ कुठार है ll विछत्त  पाद,"रिक्त" पेट राष्ट्र कर्णधार है l धरा सुपुत्र हे ! तुम्हे.. प्रणाम बार-बार है ll ©संजीव शुक्ला 'रिक्त'