ग़ज़ल ©परमानंद भट्ट 'परम'

नमन, माँ शारदे

नमन, लेखनी


याद कर बीते  पलों को ,हाय सिहर जाता हूँ मैं

ज़ख़्म जो उसने दिये थे,रोज सहलाता हूँ मैं


जब दिया थकने लगा इस तीरग़ी के सामने

सूर्य बोला फ़िक्र मत कर,लौट कर आता हूँ मैं


 हूँ भले नादान लेकिन,आज के इस दौर में 

कब कहां धोखा मिलेगा,सब समझ पाता हूँ मैं


 मैं तेरे दीदार को हर रोज़ आता हूँ यहां 

बंद खिड़की देखकर फिर रोज पछताता हूँ मैं


 भीड़ बहरों की यहाँ है,यह मुझे मालूम फिर

यह समझ आया नहीं है,गीत क्यूँ गाता हूँ मैं


 सैकड़ों पत्थर दिलों के,अक्स असली देखकर

"एक शीशा हूँ कि हर पत्थर से टकराता हूँ मैं "


 स्वर्ग क्या है नर्क कैसा,भेद जब जाना नहीं 

उस 'परम'का नाम लेकर,क्यूँ ये समझाता हूँ मैं


©परमानन्द भट्ट

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