मैं तुम्हारा पाठक होना चाहता हूँ, आशिक़ नहीं। तुम्हारी भी हमेशा से चाहत रही है, कि मैं तुम्हें पढ़ता रहूँ। तुम्हारी बातों में छिपी हर गहराई को समझता रहूँ। हर अल्फ़ाज़, हर जज़्बात सुनता रहूँ। मैं हमेशा से सोचता था कि तुम कुछ लिखती नहीं, फ़िर भला कैसे तुमको पढूँ। ये सवाल, ये ख़याल, कई दिनों तक मेरे दिमाग से गया नहीं था। एक उलझन सी रहती थी। अक्सर घने जंगलों में, सवेरे एक धुँध सी छा जाती है। एक ऊंचाई के बाद कुछ ढंग से दिखना बन्द हो जाता है। न जाने वो धुँध किन उलझनों में उलझकर उन पेड़ों में किसी को खोजती रहती है। लेकिन फ़िर सूरज की धूप आकर धुँध की उलझन दूर कर देती है। ठीक उसी प्रकार एक दिन तुमने आकर अपने शब्दों की किरणों से मेरी उलझन दूर कर दी। बस इतना कहकर कि "किसी को पढ़ने के लिए ज़रूरी तो नहीं कि वो लिखे"। वाकई, क्या किसी का लिखना ज़रूरी है, उसे पढ़ने के लिए? मेरे मायनों में, शायद नहीं। अगर आप चाहें, तो किसी के बिना लिखे भी उसे पढ़ सकते हैं। किसी के दिल को, किसी की भावनाओं को, बातों को। जैसे, मैं पढ़ लेता हूँ। तुमको। है न? जानती हो? तुम्हारी आँखों की चमक अक्सर मुझको तुम्हारे दिल का हाल ब