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बरसात की रात ©सरोज गुप्ता

 भीगते स्याह उस तरबतर रात में ।  वाह क्या बात थी उस मुलाकात में ।।  बह गया दर्द ए दिल जो हमारा सनम ।  खो गए हम ओ तुम प्यार की बात में ।।  बढ़ गई धड़कने सीने में जोर से ।  गरजे बादल गगन में जो बरसात में ।।  वो तड़पती रही बिजलियाँ जोर से ।  रोशनी घर की गुल हो गई रात में ।।  आसमां जो बरसता रहा मुख्तसर ।  भीगता मन रहा हाथ ले हाथ में ।।  आज फिर खो गई बारिशों में सनम ।  आज तन्हा ये दिल रो रहा याद में ।।                                 @सरोज गुप्ता

आपबीती ©आशीष हरीराम नेमा

  सुनो  हमसफ़र यूँ  सफ़र छोड़ के । कहाॅं चल दिये तुम असर छोड़ के ।   रहो तुम  यहीं  पे कहॉं  दर-ब-दर । भटकते  फिरोगे  शहर  छोड़  के । बहुत खूब तक़सीम अब तक किया । दिया क्या  मुझे पर  ज़हर छोड़ के । बता  ज़ालिमा  इस  दफा ये  दग़ा । किया क्यों नहीं सात  घर छोड़ के । बना फिर  रहा वो रहमदिल बड़ा । फ़क़त मौत की ही कसर छोड़ के । जमीं  आसमाँ  खौफ़  में हैं अभी । न  जाना परिंदों  शजर  छोड़  के । खिलेगा  हटा‌  के‌  निशा  देखना । सवेरा  पहर  दो  पहर  छोड़  के ।                                                         ✍️ आशीष हरीराम नेमा

विरहन ©नवल किशोर सिंह

 कुटिया कुहके मृदुहास बिना। घर आँगन साजन भास बिना। लतिका अवलंब बिना उजड़ी, कलिका न खिली मधुमास बिना। पतझार लिए अँकवार सखी। उर साल रहा नित खार सखी। खल सावन दूर डकार करे, मृगलोचन में जलधार सखी। मन अंचल सिंचित नीर कहाँ। बिन बादल पल को धीर कहाँ। सुख पास सुहास घटा बनके, पिय पावस हरता पीर कहाँ। रस रास विलास रसे न पिया। मधु मोद मरंद लसे न पिया। सखि साज कमाच कुलाँच नहीं, भँवरा भर भाव हँसे न पिया।             -©नवल किशोर सिंह

गीतिका ©अनिता सुधीर

 1222,1222 1222 1222 रखें उत्तम गुणों को जो,रहें सबके विचारों में। मनुजता श्रेष्ठतम उनकी,चमकते वो हज़ारों में। सभी लिखते किताबें अब,बचे पाठक नहीं कोई। पढ़ेगा कौन फिर इनको,पड़ी होंगी किनारों में।। हवा की बढ़ रही हलचल,समय आया प्रलयकारी नहीं जो वक़्त पर चेते, उन्हें गिन लो गँवारों में।। लगी है भूख दौलत की,हवा को बेचते अब जो सबक तब धूर्त लेंगे जब, लगेंगे वो कतारों में ।। अटल जो सत्य था जग का,भयावह इस तरह होगा गहनता से इसे सोचें, मनुज मन क्यों विकारों में।। ठहरता जा रहा जीवन,सवेरा अब नया निकले दुबारा हो वही रंगत,महक हो फिर बहारों में।।                                               @अनिता सुधीर आख्या

मैं तुम्हारा पाठक होना चाहता हूँ, आशिक़ नहीं। ©गुंजित जैन

 मैं तुम्हारा पाठक होना चाहता हूँ, आशिक़ नहीं। तुम्हारी भी हमेशा से चाहत रही है, कि मैं तुम्हें पढ़ता रहूँ। तुम्हारी बातों में छिपी हर गहराई को समझता रहूँ। हर अल्फ़ाज़, हर जज़्बात सुनता रहूँ। मैं हमेशा से सोचता था कि तुम कुछ लिखती नहीं, फ़िर भला कैसे तुमको पढूँ। ये सवाल, ये ख़याल, कई दिनों तक मेरे दिमाग से गया नहीं था। एक उलझन सी रहती थी। अक्सर घने जंगलों में, सवेरे एक धुँध सी छा जाती है। एक ऊंचाई के बाद कुछ ढंग से दिखना बन्द हो जाता है। न जाने वो धुँध किन उलझनों में उलझकर उन पेड़ों में किसी को खोजती रहती है। लेकिन फ़िर सूरज की धूप आकर धुँध की उलझन दूर कर देती है। ठीक उसी प्रकार एक दिन तुमने आकर अपने शब्दों की किरणों से मेरी उलझन दूर कर दी। बस इतना कहकर  कि "किसी को पढ़ने के लिए ज़रूरी तो नहीं कि वो लिखे"। वाकई,  क्या किसी का लिखना ज़रूरी है, उसे पढ़ने के लिए? मेरे मायनों में,  शायद नहीं। अगर आप चाहें, तो किसी के बिना लिखे भी उसे पढ़ सकते हैं। किसी के दिल को, किसी की भावनाओं को, बातों को। जैसे, मैं पढ़ लेता हूँ। तुमको। है न? जानती हो?  तुम्हारी आँखों की चमक अक्सर मुझको तुम्हारे दिल का हाल ब

महात्मा भरत ©संजीव शुक्ला

 छंद - चामर  वर्ण - 15 मात्रा - 23 रगण जगण  रगण जगण रगण  SlS  lSl SlS lSl SlS पूज्य कौशलेश सूर्यवंश वंदना करूँ l राम जन्मभूमि पुण्य धूलि शीश में धरूँ l वंदनीय देव भूमि पावनी सुहावनी l तीर्थ धाम तीर घाघरा छटा लुभावनी l राम संग राम भ्रात पाद कंज वंदना l कौशलेश नन्द धर्म रूप हे व्रती मना l भ्रात धर्म के प्रतीक संत त्याग मूर्ति हे  कोटिशः प्रणाम हैँ सदा कृपा बनी रहे l मूढ़ मैं पुराण वेद शास्त्र ज्ञान हीन हूँ l काव्य छंद वर्ण भाव शून्य रिक़्त दीन हूँ l कैकयी कुमार राम भ्रात,श्री कनिष्ठ के,  शब्द पुष्प भेंट हैँ पदारविन्द रिक़्त के l कामना प्रशस्ति गान की युगों हिये रही l शब्द अर्चना कुमार की अभीष्ट ये रही l लालसा सदा रही सुपुत्र सूर्य वंश के l शब्द रूप में प्रणाम पूज्य राम अंश के l धीर वीर संत रूप भ्रात धर्म की ध्वजा l मांडवी पती नमो, विलास राज का तजा l त्याग मेरु तुंग हे विराग भक्ति अंत हे l रिक़्त का प्रणाम है अभूतपूर्व  संत हे l                  (2) राम दर्श कामना विशुद्ध भ्रातृ भावना,  कर्ण वेधती प्रजा समाज की उलाहना l तेज सूर्य वंश व्याल दंश ले कलंक ले,  शूल पाद बेधते व्यथा अपार अंक ले l सं

शिव स्तुति ©दीप्ति सिंह

 भोले शिव शंकर का शृंगार निराला है  गंगा है जटाओं में बाघम्बर डाला है नंदी की सवारी है छवि अद्भुत न्यारी है  जो ध्यान करे शिव का मन उसका शिवाला है  शिव-शक्ति की जोड़ी भक्तों को प्यारी है  इनके अंतर बसती ये सृष्टि सारी है जो दर्शन पाता है वो भव तर जाता है  शंभू की कृपा सारे संकट पर भारी है    हे नीलकंठ आकर विष को धारण कीजै  सृष्टि में साँसों का अब संचारण कीजै बस तेरा सहारा है अब कौन हमारा है भक्तों के कष्टों का अब तो तारण कीजै                              @दीप्ति सिंह "दीया"

ज़िंदगी ©संजीव शुक्ला

 झुर्रियाँ बन गमज़दा रुख पे बिखरती ज़िन्दगी l कतरा कतरा हो पसीने में पिघलती ज़िंदगी l रोशनी की चाह में हाथों में बुझा चराग ले... तीरग़ी हो स्याह तलघर में उतरती ज़िंदगी l दर्द में हँसती रही कुछ और निखरी रंज़ में..  पाँव मोड़ें तंग चादर में सिमटती ज़िन्दगी l बारिशों में सर हथेली की छुपाकर ओट में..  सर्द रातें, झीनी  चादर में गुजरती ज़िंदगी l अब किसी आवाज़ पर रुकती नहीं काफ़िर कभी..  धूल हो अनजान राहों में.... बिखरती ज़िंदगी l                    ©संजीव शुक्ला 'रिक़्त'