ज़िंदगी ©संजीव शुक्ला

 झुर्रियाँ बन गमज़दा रुख पे बिखरती ज़िन्दगी l

कतरा कतरा हो पसीने में पिघलती ज़िंदगी l


रोशनी की चाह में हाथों में बुझा चराग ले...

तीरग़ी हो स्याह तलघर में उतरती ज़िंदगी l


दर्द में हँसती रही कुछ और निखरी रंज़ में.. 

पाँव मोड़ें तंग चादर में सिमटती ज़िन्दगी l


बारिशों में सर हथेली की छुपाकर ओट में.. 

सर्द रातें, झीनी  चादर में गुजरती ज़िंदगी l


अब किसी आवाज़ पर रुकती नहीं काफ़िर कभी.. 

धूल हो अनजान राहों में.... बिखरती ज़िंदगी l

                   ©संजीव शुक्ला 'रिक़्त'

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