ज़िंदगी ©संजीव शुक्ला
झुर्रियाँ बन गमज़दा रुख पे बिखरती ज़िन्दगी l
कतरा कतरा हो पसीने में पिघलती ज़िंदगी l
रोशनी की चाह में हाथों में बुझा चराग ले...
तीरग़ी हो स्याह तलघर में उतरती ज़िंदगी l
दर्द में हँसती रही कुछ और निखरी रंज़ में..
पाँव मोड़ें तंग चादर में सिमटती ज़िन्दगी l
बारिशों में सर हथेली की छुपाकर ओट में..
सर्द रातें, झीनी चादर में गुजरती ज़िंदगी l
अब किसी आवाज़ पर रुकती नहीं काफ़िर कभी..
धूल हो अनजान राहों में.... बिखरती ज़िंदगी l
©संजीव शुक्ला 'रिक़्त'
Bahut jayda Sundar Sirji 👌👌
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत खूब।💐🙏🙏
जवाब देंहटाएंबेहतरीन 👏👏👏
जवाब देंहटाएं🙏
हटाएंबहुत भावपूर्ण ग़ज़ल 🙏🏻👌👌
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