महात्मा भरत ©संजीव शुक्ला
छंद - चामर
वर्ण - 15
मात्रा - 23
रगण जगण रगण जगण रगण
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पूज्य कौशलेश सूर्यवंश वंदना करूँ l
राम जन्मभूमि पुण्य धूलि शीश में धरूँ l
वंदनीय देव भूमि पावनी सुहावनी l
तीर्थ धाम तीर घाघरा छटा लुभावनी l
राम संग राम भ्रात पाद कंज वंदना l
कौशलेश नन्द धर्म रूप हे व्रती मना l
भ्रात धर्म के प्रतीक संत त्याग मूर्ति हे
कोटिशः प्रणाम हैँ सदा कृपा बनी रहे l
मूढ़ मैं पुराण वेद शास्त्र ज्ञान हीन हूँ l
काव्य छंद वर्ण भाव शून्य रिक़्त दीन हूँ l
कैकयी कुमार राम भ्रात,श्री कनिष्ठ के,
शब्द पुष्प भेंट हैँ पदारविन्द रिक़्त के l
कामना प्रशस्ति गान की युगों हिये रही l
शब्द अर्चना कुमार की अभीष्ट ये रही l
लालसा सदा रही सुपुत्र सूर्य वंश के l
शब्द रूप में प्रणाम पूज्य राम अंश के l
धीर वीर संत रूप भ्रात धर्म की ध्वजा l
मांडवी पती नमो, विलास राज का तजा l
त्याग मेरु तुंग हे विराग भक्ति अंत हे l
रिक़्त का प्रणाम है अभूतपूर्व संत हे l
(2)
राम दर्श कामना विशुद्ध भ्रातृ भावना,
कर्ण वेधती प्रजा समाज की उलाहना l
तेज सूर्य वंश व्याल दंश ले कलंक ले,
शूल पाद बेधते व्यथा अपार अंक ले l
संग राज्य की प्रजा समस्त राज पाट है,
व्यग्रता अपार चित्त वेदना विराट है l
कौशलेश पुत्र व्यग्र सूर्य वंश अंश हैँ
शांत चित्त वेधते कठोर तीक्ष्ण दंश हैँ l
राम बंधु राम दर्श कामना प्रयाग ले ,
संत रूप राज वंश के चले विराग ले l
द्वन्द मानसी अनेक भांति के विचार हैँ,
धैर्य ताल बंध भंग वक्ष घोर ज्वार हैँ l
हाय!श्याम गात ले कलंक भार साथ ले,
कोटि ले विषाद संग में प्रजा अनाथ ले l
प्राण, रोम, नैन वारि राम को पुकारते,
धैर्य धार रंच भ्रात नेह को विचारते l
भ्रात पाद कंज दर्श पा व्यथा सुनाइहों ,
का विधी कनिष्ठ भ्रात के समीप जाइहों l
मातु जानकी पदारविंद पर्स पाइहों,
मैं निकृष्ट घोर पातकी महा कहाइहों l
हा महा वृथा अनर्थ घोर मातु ने किया l
सम्पदा विलास राज्य भोग पितृ से लिया l
मंथरा कुबुद्धि मातु की मती गई फिरा l
क्यों न जन्म दायनी,कटी कलंकिनी गिरा ll
मातु हो न पुत्र जन्म ध्येय जानती अहो l
भक्त जन्म जन्म से रहा सदैव दास हो ll
प्राण राम हैँ कनिष्ठ दास राम का सदा l
रोम-रोम व्याप्त राम प्राण, देह सर्वदा ll
(3)
राम के पदारबिन्द धार के हिये चले l
कैकयी कुमार वक्ष यातना लिये चले l
शृंगबेर शैल धाम आ छटा निहारते l
गंग तीर आय प्राण राम को पुकारते l
राम सीय पाद चिन्ह रेणु मध्य ख़ोजते l
शीश धार गंग नीर, बालु अश्रु पोंछते l
जान्हवी प्रवाह तीव्र है विशाल पाट है l
भ्रात मातु मध्य में नदीश्वरी विराट है l
धन्य धन्य भाग हैँ अहो निषादराज के l
धन्य नाव जो परी सुकाज राम काज के l
पाद को पखार के निषाद जी धनी भए l
मातु मुद्रिका उतार जाहि प्रेम सों दए l
द्वन्द मानसी अनेक भावना विडंबना l
भांति भाँति की सनेह त्रास युक्त कल्पना l
श्री वशिष्ठ संग अन्य कामना विचार के l
सांझ ठौर कीन्ह योग्य ठाँव को निहार के l
©संजीव शुक्ला 'रिक़्त'
Adbhut adutye sirji 🙏
जवाब देंहटाएंभाव विभोर हूं.. आदरणीय "रिक्त" जी! आपने तो मन भर दिया.. संपूर्णता से.. श्रीराम को समर्पित इन छंदों से 🙏🏼
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धक प्रतिक्रिया का सादर आभार, नमन आदरणीय l 🙏💐
हटाएंअद्भुत 🙏🏻🙏🏻🙏🏻💐
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया 👌
जवाब देंहटाएं🙏
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