आपबीती ©आशीष हरीराम नेमा

 


सुनो  हमसफ़र यूँ  सफ़र छोड़ के ।

कहाॅं चल दिये तुम असर छोड़ के ।

 

रहो तुम  यहीं  पे कहॉं  दर-ब-दर ।

भटकते  फिरोगे  शहर  छोड़  के ।


बहुत खूब तक़सीम अब तक किया ।

दिया क्या  मुझे पर  ज़हर छोड़ के ।


बता  ज़ालिमा  इस  दफा ये  दग़ा ।

किया क्यों नहीं सात  घर छोड़ के ।


बना फिर  रहा वो रहमदिल बड़ा ।

फ़क़त मौत की ही कसर छोड़ के ।


जमीं  आसमाँ  खौफ़  में हैं अभी ।

न  जाना परिंदों  शजर  छोड़  के ।


खिलेगा  हटा‌  के‌  निशा  देखना ।

सवेरा  पहर  दो  पहर  छोड़  के ।

                            

                           ✍️आशीष हरीराम नेमा


टिप्पणियाँ

  1. आप सभी का हृदयतल से धन्यवाद

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