ग़ज़ल ©गुंजित जैन

 हैं किसी जाम की शफ़्फ़ाफ़ ख़ुमारी ज़ुल्फ़ें,

क़त्ल करती हैं मिरा आज शिकारी ज़ुल्फ़ें।


क्यों भला ज़ुल्फ़ यहाँ की नहीं लगती मुझको?

क्या ज़मीं पर कहीं जन्नत से उतारी ज़ुल्फ़ें?


बेवजह ही यूँ निगाहों को छुपा लेती हैं,

रोज़ करती हैं शरारत ये तुम्हारी ज़ुल्फ़ें।


क्या ज़रूरत है भला तुमको यहाँ सजने की,

यूँ सजावट को तो काफ़ी हैं ये प्यारी ज़ुल्फ़ें।


जाँ निकलने ही लगी थी तेरी उस दिन गुंजित,

मुस्कराकर जो उन्होंने थी सँवारी ज़ुल्फ़ें।

©गुंजित जैन

टिप्पणियाँ

  1. वाह्ह्ह्ह वाह्ह्ह भैया, बहुत कमाल गजल 👏👏💞

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  2. वाह्हहह क्या कहने लाजवाब गज़ल 💐💐💐

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  3. वाह वाह बहुत खूबसूरत गज़ल बेटा 👌👌👌💐💐💐

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  4. बहुत खूबसूरत ग़ज़ल भाई👌👌

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  5. बहुत बेहतरीन ग़ज़ल हुई है भाई जी♥️♥️🙏🙏

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