प्रेम और प्रेमविवाह ©रानी श्री

 हमें बचपन से ही सबसे प्रेम करना सिखाया जाता है लेकिन जब बात प्रेम विवाह पर आती है तो क्यों हम पीछे हट जाते हैं? क्यों तब जाति, धर्म, लिंग, उम्र, समझ और नासमझी मध्य में आने लग जाते हैं? क्यों बड़े लोगों को लगता है कि प्रेम विवाह का परिणाम केवल कलह और विनाश ही होगा।  बचपन से ही मन में सजातीय विवाह की धारणा मन मस्तिष्क में कील की भांति ठोक दी जाती है और चाह कर भी कुछ प्रेम कथाएं पूर्ण नहीं हो पातीं। और दैव संयोग अगर गलती से प्रेम विवाह कर भी लिया तो उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता है जैसे कितना बड़ा पाप कर दिया हो उन्होंने। 


जिन्हें प्रेम का अर्थ नहीं पता वो क्या समझेंगे कि प्रेम, उसकी सीमाएं व पराकाष्ठा क्या है? हमारी दृष्टि में ये गलत है कि बच्चे अनभिज्ञ लोगों से बात करें लेकिन ये सही है कि बच्चे किसी अंजान से विवाह कर लें और जीवनपर्यंत उनके संग रहें।  यही कारण है कि प्रेमी युगल को छिप कर और डरकर रहना पड़ता है। ये किस प्रकार की धारणा है कि यदि कोई प्रेम कर बैठे तो वह पतित है और यदि प्रेम विवाह कर ले तो उससे बड़ा पापी कोई नहीं। क्यों यह समाज व हमारी संस्कृति उसे अपना नहीं पाती? संस्कृति तो हमें प्रेम करना ही सिखाती है फिर वो भला कैसे प्रेम विवाह के विरुद्ध हो सकती है? 


हमारी मानसिकता इस कदर रोग बन चुकी है कि अब प्रेम होता नहीं किया जाता है , 'अपनी जाति देखकर'। प्रेम करने में और होने में धरती आकाश का अंतर है। प्रेम करने का अर्थ है मन को समझा कर और हार कर किसी को अपनाना किंतु प्रेम होना पूर्णतया प्राकृतिक है और जब जब मनुष्य प्रकृति के विरूद्ध गया है तब तब उसका विनाश ही हुआ है। जिस प्रकार मां पिता का प्रेम विवशता से नहीं अपितु अकारण व अनायास ही होता है उसी प्रकार दो प्रेमियों का प्रेम भी स्वाभाविक रूप से स्वतः ही उत्पन्न होता है और ये प्रेमी भले ना रहें उनका प्रेम युग युगांतर तक रहता है। और जहां हमनें जाति धर्म देखा बस वहीं समझ लिया जाना चाहिये कि वह प्रेम नहीं विवशता है। 


कभी कभी प्रेम जन्म तो ले लेता है पर विकसित नहीं हो पाता क्योंकि पहले ही उसे जातिवाद जैसी मानसिकता की बेड़ियों में बांध दिया जाता है। हम प्रेम और प्रेम विवाह को समस्त समस्या व उनका जड़ मान लेते हैं किंतु हम ये नहीं समझते कि प्रेम सभी बंधनों से परे है और अंततः यही समाधान है सारी समस्याओं का। एक तो वैसे ही प्रेम विरल है उसपर जो है हम उसे भी समाप्त करने पर लग जाते हैं और न जाने कौन सी जीत पर प्रसन्नता दिखाते हैं।


प्रेम होना गलत नहीं उसे तोड़ दिया जाना गलत है। मेरे विचार से यदि प्रेम वास्तविक है तो उसे विरह नहीं साथ मिलना चाहिये जिसमें न भय हो न द्वेष, न मन में असंतोष का भाव हो न कोई विवाद। हर प्रेमकथा का यह अधिकार है कि उसका अंत सुखद हो और यही एकमात्र हल भी है। लोंगो को प्रेम चाहिये किंतु प्रेम विवाह नहीं।

जब प्रेम संपूर्ण जीवन का सार है तो प्रेम विवाह गलत करना कैसे हो सकता है?


कुछ प्रेम कथाएं विवाहों पर पूर्ण होती हैं, कुछ विरह की अग्नि में भस्म होकर और कुछ अपना जीवन समाप्त कर। केवल नियति मानकर मृत्यु को गले लगा लेना प्रेम पर किया गया सबसे बड़ा अन्याय  है।


~©रानी श्री

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