शजर ©हेमा काण्डपाल

 भीगे आसमाँ के सीने से जब धरती लिपट गई, तो इस मिलन से जन्म लिया, इक कोमल पौधे ने। जिसके अब्रों से बने झूले को तारों के झुनझुने से सजाया गया , और चाँद का तकिया उसमें बिछाया गया। नैनीहाल से तोहफ़े में आया इक जोड़ा जीवन रूपी वस्त्र का और झरनों की पाजेब। 

वो पौधा जब सो जाता तो पवन धीमी चाल चलती, और धरती घूम घूम उसे थपकियाँ देती, भँवरे लोरी सुनाते थे और आसमाँ उसे छाँव देता ।

पर अब पौधा बड़ा हो रहा था।  झूले, तारों के झुनझुने और चाँद रूपी तकिए को अब उसे अलविदा कहना था। 

वो कोमल पौधा अब शजर बन चुका था, जिसके पैर गढ़ चुके थे अपनी अलग दुनिया में, यहाँ आसमाँ नदारद था और धरती लापता , साथ थी तो बस कुछ हरी पत्तियाँ जो बस बसंत में साथ देती थी और पतझड़ आते ही वो पेड़ अपने तने के आगोश में सिसक सिसक के रोता था।

मेरा जीवन भी उस पेड़ के जैसा ही है, जिसकी छाँव में न जाने कितने पथिक आए , विश्राम किया और चले गए । वो शजर जो अपनी ही जड़ों की क़ैद में है, वो शजर जो औरों को छाँव तो दे सकता है पर ख़ुद के सर पर छत नहीं।

शजर बनना अच्छा होता है, पर पौधे से शजर बनना नहीं।

शजर औरों को नया जीवन तो दे सकता है किन्तु ख़ुद के जीवन को नए आयाम नहीं। उसे आसमाँ बढ़ते रहना होता है , अपने पिता के सपनों को छूने के लिए, उसे झुके भी रहना होता है, अपनी माँ की आशाओं पर ख़रा उतरने के लिए। 

शजर बनना तो आसान है पर बने रहना नहीं।

   © हेमा काण्डपाल 'हिया'

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