गज़ल ©संजीव शुक्ला

बहृ - बहृ ए मीर, 32 मात्रिक 

वज़्न - 22 22 22 22 22 22 22 22


 मुद्द्त की तमन्ना पूरी हों,  आँखों में खुमार उतर जाए /                

पहलू में बैठे रहो यूं ही ये... उम्र की रात गुज़र जाए //                      


इन फानूसों के बस में नहीं.... घर रौशन कर पाएं मेरा...               

ज़ुल्फ़ों को हटा दो रुख से उजाला हर ज़र्रे में भर जाए //                 


कलियों में नरमी खुश्बू के,  नायाब वो रंग वो नूर कहाँ....                               

संदल सी बाहों के घेरे में... जिस्म-ओ-जान सिहर  जाए //                              


वो चाँद पशेमाँ हो के छुपा...... बादल के साये के पीछे....                       

है ताब कहाँ सानी में चाँद का,  हुस्न-ओ-ज़माल सँवर जाए //              


गेसू बिखरे रेशम की नर्म तपिश मदहोशी का आलम....                    

रोंये में बर्क उठे खुश्बू का गुबार... ज़हन कर तर जाए //                                              


दो सुर्ख  गुलाबी कलियों पे  शबनम की बूँदों का आलम...                         

चटकी कलियाँ जो तबस्सुम फिर, ज़र्रे ज़र्रे में बिखर जाए //                   


रुख से ज़ुल्फ़ें , शानों से दामन.. बेखुद हो के सरक जाये ...                

रूहें, जिस्म-ओ-ज़ाँ साँसें,दिल,  रग-रग को गाफिल कर जाए //

©संजीव शुक्ला 'रिक्त'

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