मेरे कविवर ©लवी द्विवेदी
आज दुखी कविता ने देखा,
मुझसे कहती कहो छुआ क्या।
चाह रहे थे अंबर छूना,
अंबर तेरा नहीं हुआ क्या?
पहले हर क्षण अंबर छूकर,
तुमने अपने पंख पसारे।
अब जब उड़ना सीख चुके हो,
फिर क्यों बैठे हारे हारे।
क्यों अंतस में है कोलाहल ?
मेरे कविवर।
तुमने मेरा वरण किया था,
तब से गेह तुम्हारे बैठी।
मन मस्तिष्क कुँवारे थे जब,
उस क्षण हो रतनारे बैठी।
नई वधूटी जो जो करती,
मैने नित नव रचना की थी।
नित्य नए सृजनानंदों में,
नाम तुम्हारे की थी वीथी।
पर तुम ही हो बैठे घायल,
मेरे कविवर।
यशोगान, सम्मान, प्रतिष्ठा,
क्या क्या तुमको नहीं दिलाया।
हर क्षण मान प्रतिक्रिया ने तो,
नहीं कदाचित गरल मिलाया?
क्षण क्षण दुर्बल होते जाते,
ऐसा क्या विषपान कर लिया।
नहीं रह गई कोई आशा,
कितना संयम अंक भर लिया।
या फिर हार गया है संबल,
मेरे कविवर।
नहीं चाहिए मान तुम्हे अब,
मुझको तुम बस पढ़ना चाहो।
कभी कभी अँधियारा पाकर,
थोड़ा सा ही रचना चाहो...
लेकिन नहीं रचा जाता है,
जाते छोड़ अधूरी रचना।
कहीं दूर बैठी रचना को,
गाती नित्य तुम्हारी रसना।
नहीं रहा तुमको प्रिय शतदल ,
मेरे कविवर।
एक काव्य ऐसा कवि चाहे,
कविता प्रेम कभी हो ऐसा।
जो कवि को बेसुध कर डाले,
प्रेम दिवानी मीरा जैसा।
नित यदि न मिले कभी उदर भर,
सृजन श्रवण करने की पूजा।
क्षुधा व्याप्त कवि देख न पाए,
कविता से पहले कुछ दूजा।
ऐसे कवि का भीगे उरतल,
मेरे कविवर।
लेकिन काव्य जनित परिभाषा,
जन-जन जीर्ण-शीर्ण हो पहुँची।
केवल यशोगान तक सीमित,
रहकर कविता क्षण-क्षण सकुँची।
रुकिए! इससे पहले कविवर,
बने समसि शब्दों का लच्छा।
काव्य लुटेरों के हाथों से,
लुटे काव्य यह, इससे अच्छा!
पृष्ठ रहे विधवा सा आँचल ,
मेरे कविवर।
©लवी द्विवेदी 'संज्ञा'
अत्यंत संवेदनशील एवं भावपूर्ण कविता 💐
जवाब देंहटाएंअत्यंत भावपूर्ण कविता है💐💐
जवाब देंहटाएंअत्यंत भावपूर्ण कविता सृजन बेटा
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