ग़ज़ल ©गुंजित जैन
जान लुटाई यारों पर और सबसे नाता, अच्छा था,
हाल मगर मेरा भी मुझसे पूछा जाता, अच्छा था।
उनकी वो आँखें, वो लब, वो ज़ुल्फ़ यकीनन दिलकश हैं,
लेकिन फ़िर भी उनका चेहरा याद न आता, अच्छा था।
जितनी दूरी तक अंगूठे से बातें कर लेता है,
उतनी दूरी तक इंसाँ बाहें फैलाता, अच्छा था।
बचपन की गलती भी कितनी भोली-भाली होती थी,
हर्फ़ कागज़ों पर लिखता, फिर उन्हें मिटाता, अच्छा था।
राह देखना ख़त्म हो गया दूरभाष के दौर में आ,
कोई डाकिया अब भी चिट्ठी भर घर लाता, अच्छा था।
बढ़ते-बढ़ते ना जाने किस दलदल में आ उलझा हूँ,
बच्चा ही रहता, मुस्काता, हँसता-गाता, अच्छा था।
उनके हर इक ज़र्रे से ये दिल उल्फ़त कर बैठा है,
इश्क़ उन्हें भी मुझसे थोड़ा ग़र हो पाता, अच्छा था।
बेटी के मर जाने पर लेकर दीपक चल देते हैं,
शमा समझ की लड़कों में भी कोई जलाता, अच्छा था।
हर इंसाँ जज़्बातों को क्यों दिल में रखता है गुंजित?
उनमें थोड़े हर्फ़ मिलाता, ग़ज़ल बनाता, अच्छा था।
©गुंजित जैन
बेहद ही खूबसूरत ग़ज़ल ❤️❤️
जवाब देंहटाएंसादर आभार🙏
हटाएंसादर आभार, नमन लेखनी।
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत बेहद रूमानी गज़ल 💐
जवाब देंहटाएंसादर आभार मैम।
हटाएंबेहतरीन गज़ल गुंजित बेटा
जवाब देंहटाएंसादर आभार मैम
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