मेरे गगन तुम ©अनिता सुधीर
मैं धरा मेरे गगन तुम
अब क्षितिज हो उर निलय में
दृश्य आलिंगन मनोरम
लालिमा भी लाज करती
पूर्णता भी हो अधूरी
फिर मिलन आतुर सँवरती
प्रीत की रचती हथेली
गूँज शहनाई हृदय में।।
धार इठलाती चली जब
गागरें तुमने भरीं है
वेग नदिया का सँभाले
धीर सागर ने धरी है
नीर को संगम तरसता
प्यास रहती बूँद पय में।।
नभ धरा को नित मनाता
फिर क्षितिज की जीत होती
रंग भरती चाँदनी तब
बादलों से प्रीत होती
भास क्यों आभास का हो
काल मृदु हो पर्युदय में।।
©अनिता सुधीर
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बहुत ही सुंदर ❤️❤️❤️
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर ❤️❤️❤️
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शुचिता जी
हटाएंअत्यंत उत्कृष्ट एवं मनमोहक गीत सृजन 💐💐🙏🏼
जवाब देंहटाएंसुंदर सरस श्रृंगार रस आधारित अप्रतिम नवगीत ।
जवाब देंहटाएंउतनी ही सुंदर स्वर प्रस्तुति।
बधाई।
आभ्गर सखि
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर 🙏
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंBahut Sundar ma'am 🙏🙏
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