रेंगनी ©नवल किशोर सिंह

 मोह माहुर ले मिलन का,

मुग्ध मन मनुहार संचित। 


जेठ की धधकी तपन में।

स्वेद-बूँदें हैं नयन में।

श्रांत बैठा उर-श्रमिक है,

वात वैभव चाह मन में।


साँस सुरभित हो मलय से,

प्राण पुलकित सार संचित।


मास जब आषाढ़ आया।

गोखरू में पात लाया।

नेह पुष्पित कंटकों से,

पाट कर पथ को सजाया।


कंटकों के बीच चलना,

पग महावर खार संचित।


गात पुलकित हास लेकर।

प्रीति पावन आस लेकर।

खुल रहे द्वय बाँह मेरे,

बैंगनी अकरास लेकर।


एक लतिका बन सिमटती,

सावनी अँकवार संचित।


लाजवंती-सी छुअन में।

ओढ़नी सहमी बदन में।

रेंगनी-सा रोम मेरा,

है विकर्षण इस मिलन में।


वेदना सजती नयन में,

भाद्रपद जलधार संचित।


-©नवल किशोर सिंह

टिप्पणियाँ

  1. अत्यंत अद्भुत, गहन भावपूर्ण सृजन सर जी 🙏🙏🙏💐💐💐

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  2. अत्यंत उत्कृष्ट एवं मनमोहक सृजन 💐💐🙏🏼

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  3. अत्यंत अद्भुत सर....👏👏👏👏🙏

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