लोलुपी प्रेम ©लवी द्विवेदी

छंद- हरिगीतिका

चरण- 4 ( दो-दो चरण समतुकांत) 

विधान- IISIS × 4


 तम छद्म द्वेष व्यथा लिये मनु गूढ़ता मृदु गीतिका, 

जिहके हिये अमिता नही, तिह लोलुपी हिय वीथिका।

प्रण प्राण से करते रहे, मन से नही हिय प्राण के, 

तिह प्राण प्रेम अनाथ है, जिन औषधी मुख बाण के। 


प्रति देहरी अवनी लहे, रचि राखती दृग बावरी, 

कृतिका लहे शशि पूर्णिमा,मुख चंद्र चंचल सावरी। 

पिय प्रेम में परिचारिका प्रिय हो गई छण दाँवरी, 

पिय सामने प्रिय प्राण के, पर ब्याह, संमुख भाँवरी। 


दृग भाव नीर प्रवाह को नहि रोकते रह कोसते, 

हिय के बिना हिय प्राण क्या अभिशाप ना हिय सोचते।

तजि आस प्यास विलास आहत नैन शिथिल निहारते, 

विजया पिया किह सामने प्रिय प्रेम दर्पण हारते। 


©लवी द्विवेदी

टिप्पणियाँ

  1. अद्भुत, अनुपम, उत्कृष्ट हरिगीतिका छंद सृजन...... अनेकानेक बधाइयाँ व शुभाशीष.... 🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸

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  2. अत्यंत अद्भुत हरिगीतिका छंद🙏

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  3. अद्भुत, अत्यंत उत्कृष्ट हरिगीतिका छंद सृजन 👏👏👏👏💐💐💐

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  4. अति उत्तम भावपूर्ण सृजन
    हार्दिक बधाई

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  5. अद्भुत अतुल्य हरिगीतिका छंद सृजन 💐💐💐💐

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