ग़ज़ल ©लवी द्विवेदी

 

यकीं तुम करो, हम नहीं दूर जाते।

मुक़द्दर से तुमको अगर छीन पाते।


सफ़र में नहीं सर्द तन्हाई होती,

कहीं से हँसी धूप हम ढूँढ लाते।


वो मज़हब को लेकर सुलह जो कराता,

कसम से ख़ुदा को ज़मीं पे बुलाते।


ये इल्ज़ाम सर जो लगा जा चुके हो,

अगर सच पता होता, आ तुम मनाते।


वफ़ा की कसक सिर्फ़ तुमको नहीं है,

नहीं पास हो वरना गाकर सुनाते।


मिला तोहफ़ा है, ख़बर सबको होती,

खिली धूप में फूल रख गर सुखाते।


सितमगर कहा है तो मालूम होगा,

अदब से सितमगर नहीं पेश आते।

©लवी द्विवेदी

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