कविता- शब्दों के बीज ©रेखा खन्ना
नमन, माँ शारदे
नमन, लेखनी
शब्दों के कुछ बीज़ बोए थे
काग़ज़ की खुश्क ज़मीं पर
जाने कैसे दरख़्त हो गए
एहसास, टहनियां
ख्याल, अधखिले फूल
और
ख्वाब, अनगिनत पत्तियांँ हो गए।
हृदय की अध-कच्ची मिट्टी में
जज्बातों की नमी से
ज़डों को विस्तार मिला
और मन की गहराई की ओर चल निकले
अपनी स्थाई जगह बनाने को।
शब्दों के पेड़ को
जब एक सम्पूर्ण जीवन मिला
वो कहने लगे एक कहानी
कहने लगे बेख़ौफ़ सच
वो सच जिसे बहार का मौसम
नसीब ना हुआ
और पतझड़ से मिला कर
मिट्टी में दबा दिया गया।
क्या सच, नीम के जैसा होता है
काग़ज़ को भी हिदायत दी है कि
चखना तो दूर की बात है
अपने तन पर उकेरना भी नहीं
नहीं तो जिस्म नीला पड़ जाएगा।
जाने कैसे कुछ बीजों को
दरख़्त बनने की चाह जगी
और वो बस उग आए
ये सोच कर कि मुझ में साहस है
अपना विस्तार करने का
ग़लत का विरोध करने का।
किसी दरख़्त पर सच उगा
किसी पर मक्कारी
किसी पर कविता उगी
किसी पर कोई कहानी
और बहुत से दरख़्तों पर उगा
बोझिल दिल की व्यथा को कहने
के लिए क़त्ल करने वाले बेहद कठोर
परंतु संवेदनशील शब्द
पर साथ में एक विडंबना भी उगी कि
पढ़ने वाले परिपक्व नहीं निकले।
उन्होंने केवल शब्द पढ़ कर
कृत्रिम संवेदना ज़ाहिर कर के
अपना कर्तव्य पूरा किया और
खुद का खुद ही धन्यवाद किया
ये सोच कर कि उन्होंने
किसी के जज़्बे को
समझने के लिए कुछ वक्त दिया।
कुछ शब्दों के बीज़ बोए थे
कुछ दरख़्त बन गए
और कुछ ने उगने से ही इंकार किया
इंकार इसलिए कि
कोई उन्हें समझ नहीं सकेगा
जो भी समझने की कोशिश करेगा
वो अपनी सोच और समझ के
हिसाब से ही समझेगा
पर वो, वो नहीं समझेंगे
जो हम व्यक्त करना चाहेंगे
इसलिए हम भीतर से बंजर ही भले।
कुछ शब्दों के बीज़ दरख़्त हुए और
कुछ जड़ की मजबूती बने पर फल नहीं पाए
और कुछ ने बंजर बनना स्वीकार किया।
©रेखा खन्ना
बहुत ही बेहतरीन रचना 👌👌👏👏
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कविता maam🙏
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