कविता- पुनरावर्तन ©सूर्यम मिश्र

 

नियति चाहे प्रतिष्ठित पथ में सदा कंटक बिछाए।

चक्षुओं का स्वप्न मोहक भले क्षण में उचट जाए।।

चित्त होकर चित्त..कतिपय भीरुता के गीत गाए।

राग वो रण-त्यागने के मात्र,...अधरों पर सजाए।।


शक्ति की समिधा चढ़ा तब, शौर्य हम भर लाएँगे।

फ़िर खड़े हो जाएँगे,हम फ़िर खड़े हो जाएँगे।। 


काल क्रंदन मान मंडित,......वंदना के शीश धाए।

जग तिमिर को, देवता कह, नेह आनन से लगाए।।

पाप का परिमाप,....पुण्यों के हृदय में घर बसाए।

या कि उस दुर्बोध को बस,.निरावृत रहना सुहाए।।


जब निराश्रित अश्रु के कण,..धरा को अपनाएँगे।

फ़िर खड़े हो जाएंगे,हम फ़िर खड़े हो जाएंगे।। 


प्रीति का उद्यान,.....उद्यमशील रहना भूल जाए। 

नग्न नर्तन काल का वो,...प्रणय पुंजों में दिखाए।। 

वेदना ही वेदना बस,........चेतना को नोच खाए।

प्रीति शाश्वत देख ले ये मान मद यदि लाज आए।। 


ज्ञान बन अज्ञान से तब,.....युद्ध हम कर आएँगे।

फ़िर खड़े हो जाएँगे,हम फ़िर खड़े हो जाएँगे।। 


गगन अच्युत,.धूरि के एक धुँध से ही ना दिखाए।

अमर अंबर उड़ रहा हो,..तितलियों के पंख पाए।।

पवन उर आलस्य धर कर,.कंपनों में सकपकाए। 

वेदना ब्रह्मांड भर की,..प्रति श्रवण में आ सुनाए।। 


भ्रम बने जब जुगनुओं को,.अर्क को दिखलाएँगे।

फ़िर खड़े हो जाएँगे,हम फ़िर खड़े हो जाएँगे।। 


©सूर्यम मिश्र 



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