शायद कोई कमी रह गई थी ©अंशुमान मिश्र

 सारी उम्र कटेगी.. बस इस मुद्दे पर पछताने में,

शायद कोई कमी रह गई थी तुमको समझाने में!


तूफ़ाँ ने पल भर ना सोचा और गिरा डाला उसको,

हमने जीवन वारा जिस पौधे को पेड़ बनाने में!


जो खोया था, आधा जीवन उस पर रोने में बीता,

बाकी आधा बीता, जो पाया था उसे बचाने में!


इश्क सीखना चाहो गर, तो शम्मा से जाकर सीखो,

पैदा होती परवाने से, मिट  जाती   परवाने  में!


उठकर लड़ना, लड़कर मरना, मरकर उठना, फिर लड़ना,

अलग लड़ाई  है, हर दिन जीकर,  हर दिन मर जाने में!


तुम कहते थे जिसको खुद से दूर नहीं होने दोगे,

मिली वही तस्वीर हमारी कल, घर के तहखाने में!


मैं, तुम, हम दोनों, कुछ सपने, कुछ पैसे, छोटा-सा घर,

कितना कम लगता है खुशियों का इक जहां बसाने में!


शायद कोई कमी रह गई थी तुमको समझाने में!



                       - ©अंशुमान मिश्र

टिप्पणियाँ

  1. ❤️✨अति सुन्दर ❤️✨
    ❣️बहुत अच्छा लिखे हो भाई ❣️
    वैसे लिखते तो तुम हमेशा अच्छा ही हो कोई नई बात नही बोल रहा पर फिर भी।😊❤️

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह..... कमाल, धमाल, बेमिसाल ग़ज़ल....😍😍😍😍😍

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

कविता- ग़म तेरे आने का ©सम्प्रीति

ग़ज़ल ©अंजलि

ग़ज़ल ©गुंजित जैन

पञ्च-चामर छंद- श्रमिक ©संजीव शुक्ला 'रिक्त'