ग़ज़ल ©प्रशान्त

 करूं मैं इजहार-ए-इश्क़ कैसे, दबी तमन्ना उभर न पाए l

जो बात मुझको जला रही है, सनम सुने तो सुलग न जाए ll


हैं इश्क़ के ही मक़ाम सारे, ये दिल्लगी, उंस या अकीदत..

करे इबादत ख़ुदा बनाकर  , जुनून-ए-दिलबर क़जा कहाए ll


सराब का जब किया है पीछा, मिला हूँ आकर समंदरों से....

न काम दोनों ही आए मेरे, किसे कहूं तिश्नग़ी बुझाए ??


न झूठ बोले, न सच बताए, न ऐब जाने, न खूबियों को....

ये आइना है शरीफ़ कितना, जिसे नज़र सब ज़हीन आए ll


गुज़ारिशें महफ़िलें सजातीं, तो कौन किसको 'ग़ज़ल' सुनाता l

बने हक़ीक़त हों ख़्वाब जिसके, कही-अनकही वही सुनाए ll

© प्रशान्त

टिप्पणियाँ

  1. आप सबका बहुत बहुत आभार ❤️❤️❤️🙏🙏🙏🙏💐💐💐💐😊😊

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