कहानी:- "पहुंचकर फ़ोन करना" ©गुंजित जैन

जब उच्च शिक्षा के लिए गांव से शहर आया था तो साथ सबकी उम्मीदें और कुछ सपने लाया था। सभी के अंतिम शब्द "खूब तरक्की करो, और बड़े आदमी बन जाओ" से शुरू होकर "पढ़ाई के बाद जल्दी अच्छी सी सरकारी नौकरी ढूंढ लेना" तक आकर खत्म हो रहे थे। मगर किसी का एक वाक्य उस भीड़ के शोर, स्टेशन की अनाउंसमेंट और ट्रेन की इंजन की आवाज़ के बीच दबी दबी आवाज़ में भी अलग सुनाई पड़ रहा था। "बेटा, पहुंचकर फ़ोन करना" कहती हुई माँ, अपने बच्चे से दूर होने के दुख को मुस्कराते होठों के ठीक पीछे कहीं छुपाने की कोशिशें कर रही थी। "हाँ माँ" कहते हुए मैं अपनी ट्रेन के अंदर चला गया। अपना सीट नंबर देखा, और जाकर बैठ गया। 

अब ट्रेन चल चुकी थी, अपने गंतव्य की ओर। 
"याद से फ़ोन करना" कहती हुई माँ की आवाज़ ने फ़िर होते शोर को चीर दिया। 

खिड़की से गुजरती पटरियां और दौड़ते पेड़ों को देखता हुआ मैं मन में खुद से ही कुछ सवाल करने लगा, "क्या शहर पहुंचकर मैं भी सबकी तरह गांव भूल जाऊंगा?" 
शायद, या शायद नहीं। इन सवालों ने मुझे उलझनों में डाल दिया था। मगर फ़िर शैलेश लोढ़ा जी की कुछ पंक्तियों ने मेरे अंतर्मन के सवालों का जवाब दिया, "आप आदमी को मारवाड़ से बाहर निकाल सकते हो, आदमी के भीतर से मारवाड़ बाहर नहीं निकाल सकते", ये गांव ही तो मेरा मारवाड़ है, जो मेरे भीतर है!

खैर! गाँव से बाहर निकलकर सवालों से परे मैंने आस पास बैठे लोगों की तरफ़ नज़र दौड़ाई। दाहिनी ओर एक तीस पैंतीस साल की महिला अपनी छोटी बच्ची को कुछ खिला रही थी। महिला शायद उम्र से थोड़ी ज्यादा बड़ी लग रही थी। बढ़ती ज़िम्मेदारियों ने उसकी उम्र भी कुछ साल बढ़ा कर बतलाई थी। और बच्ची कुछ सात-आठ साल की रही होगी। यूँ तो बच्चे तब तक ख़ुद से खाना सीख जाते हैं, मगर उसकी माँ उसे फ़िर भी अपने ही हाथों से खाना खिला रही थी। 

जाने क्या वजह रही होगी।
शायद, चलती ट्रेन में बच्ची के हाथ से खाना गिरकर व्यर्थ न हो जाये, इसलिए। या शायद उस संतुष्टि के लिए जो वो माँ उस बच्ची को निवाला खिलाने के बाद खुद के दिल में महसूस कर रही थी। 
जो भी वजह रही हो, मैंने नहीं पूछा। 

"माँ की याद बहुत आएगी वहाँ" एक गहरी साँस के साथ मैं बोला। मुझे अपने हाथों से खाना खिलाती हुई माँ की तस्वीर मेरी आँखों के सामने बन चुकी थी।
"बेटा, जयपुर जा रहे हो?" एकाएक दूसरी तरफ़ से आवाज़ आयी। कुछ साठ बरस का अनुभव उनके हँसमुख चेहरे की रेखाओं और बालों की हल्की सफेदी में साफ़ नज़र आ रहा था। और उसी चेहरे पर कहीं उनका अतिभाषी स्वभाव भी दिखाई पड़ रहा था। "बोलो!!" उन्होंने फ़िर कहा।
"जी...जी अंकल" दूसरी आवाज़ पर बिना कुछ सोचे मैंने बोला। 

वो एक काले फ्रेम की एनक, और ढीला सा एक कुर्ता पहने हुए थे। दाहिने कंधे पर हल्के भूरे रंग का एक झोला भी टांग रखा था। अकेले बैठे बैठे अख़बार पढ़ रहे थे। शायद मेरे जैसे ही किसी नौजवान के इंतेज़ार में थे जिस से बात करते हुए यह सफ़र बिता सके, वरना हर बार की तरह अकेले ही...!

उनका अख़बार को बंद कर देना इस बात की ओर संकेत कर रहा था कि अब वे कुछ सवालों का झोला मुझे थमाने वाले हैं।
"जयपुर में किन के यहाँ" उनकी जिज्ञासा एक एक करके सवाल किए जा रही थी। 
"जी नया हूँ, पढ़ाई के लिए गांव से आया हूँ" कहते हुए मैंने अपनी गर्दन कुछ आगे झुका ली और नीचे देखने लगा।
"अच्छा अच्छा, नए हो। कुछ भी दिक्कत हो तो मुझे बता देना। मैं जयपुर में ही रहता हूँ" अपना पता बताते हुए वो बोले, "यहाँ आकर किसी से भी पूछ लेना द्विवेदी जी कहाँ रहते हैं, बता देंगे"।
मैं "जी ठीक है" के सिवा कुछ कह न पाया।

पूरे रास्ते यूँ ही एक एक करके द्विवेदी जी सवाल करते रहे। इन्हीं सवालों में सफ़र कब बीता, पता नहीं। अब जयपुर आ चुका था। 
मैंने अपना सामान उतारा और उस नए शहर के प्लेटफार्म पर खड़ा मैं, एक उन्नीस साल का दुबला सा लड़का, चारों तरफ़ देखने लगा। एकाएक गांव से निकलते समय की कुछ बातें याद आयी। माँ को फ़ोन करने के लिए फ़ोन घुमाया, और "माँ ठीक से पहुंच गया हूँ" कहकर कुछ पलों में फ़ोन रख दिया। माँ के "ठीक है बेटा" में पीड़ा और संतोष दोनों बराबर मात्रा में सुनाई पड़ रहे थे।

अंतर्मन में कुछ बातें चल रहीं थी, जो सफ़र के साथ खत्म तो नहीं हुई, बल्कि कुछ गुना बढ़ ही गयीं थी।
क्या मंज़िलें कभी वापस मुड़ती हैं?
शायद नहीं। रास्ते वापिस मुड़ सकते हैं, मंज़िलें नहीं। तो क्या मैं अब शहर का हो जाऊंगा?

इन सवालों को वहीं स्टेशन की बेंच पर छोड़कर मैं आगे बढ़ ही रह था कि आवाज़ आई, "माँ को फ़ोन करके बोल दिया न, कि पहुंच गए हो" द्विवेदी जी अपनी हरे रंग को अटैची को घसीटकर लाते हुए बोले। "जी....जी अंकल बस अभी बोला। लाइये आपका सामान मैं रखवा देता हूँ" कहता हुआ मैं सामान उठाने चला, पर कुछ उलझनें थी मन में। उन्हें कैसे पता कि माँ ने फ़ोन करने का बोला है। खुद ही खुद में सवाल करता इस से अच्छा उनसे पूछ लेना उचित समझा।

"बेटा, इस बासठ बरस के बुढ्ढे ने उम्र के साथ साथ ज़िन्दगी का अनुभव भी बढ़ाया है। 
जब मैं यहाँ नया आया था तब मुझे भी माँ ने इस निर्देश के साथ भेजा था कि पहुंचकर चिट्ठी लिखना। तब फ़ोन कहाँ होते थे, बस चिट्ठी ही थी। अरे भई, संदेश का ज़रिया बदल सकता है माँ के भाव कहाँ बदलते हैं" कहते हुए वो हँसने लगे।
वाकई माँ के भाव कहाँ बदलते हैं!

"बेटा, कहाँ खो गया" कहते हुए माँ ने मुझे बीस साल बाद, अर्थात वर्तमान में बुलाया। "मेरी ट्रेन का समय हो गया है, अब चलती हूँ। गांव में तेरे बाबूजी भी राह देख रहे होंगे" अपनी साड़ी को ठीक करने में व्यस्त होकर, माँ बोली। डेढ़ घण्टे ट्रेन लेट होने की वजह से स्टेशन की बेंच पर ही मैं, माँ के साथ बैठा था।
इस वक़्त ने सफ़र भले ही कुछ घण्टे देरी से कर दिया हो, मगर मुझे दोबारा उस सफ़र पर जाने का मौका दिया जो मैं भूल चुका था।

अपने बिखरे सफेद बालों को एक मामूली से रिबन में बांधते हुए माँ ट्रेन पर चढ़ने को तैयार खड़ी थी। आवाज़ में धुंधलापन और चाल में लड़खड़ाहट उनकी उम्र की जानकारी दे रहे थे।

माँ को सीट पर बिठाकर मैं खिड़की के नज़दीक आकर खड़ा हो गया। माँ उस समय अपने बैग से कुछ निकाल रही थी। 
"माँ, पहुंचकर फ़ोन करना" एकाएक मैं बोला।
"हाँ बेटा" माँ ने मुस्कराते हुए कहा। एक बार फ़िर माँ अपने बेटे से दूर होने का दुख छुपा रही थी। मगर इस बार, मैं पहचान गया।

जाती ट्रेन को देखकर मुझे एहसास हुआ, कि शहर आकर मैं बड़ा बना या नहीं, पता नहीं, मगर अब बड़ा हो ज़रूर गया हूँ... 
और फ़िर मैं मुस्कराने लगा, माँ से दूर होने के दुख को छुपाने के लिए।
©गुंजित जैन

टिप्पणियाँ

  1. माँ❤️
    बहुत बहुत अछि कहानी लिखी भाई जी 💕💕👌👌👌अद्भुत🙏
    आज हम भी जयपुर आये और इसे पढ़कर माँ की दिला दी..💕

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    1. भाव आप तक पहुँचे इस से बेहतर क्या होगा, सादर आभार भाई जी🙏

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  2. अत्यंत भावपूर्ण एवं हृदयस्पर्शी कहानी

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  3. बहुत उम्दा 👏👏 लिखते रहो

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  4. अत्यंत मार्मिक भावपूर्ण और हृदयस्पर्शी कहानी

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  5. हमेशा की तरह बहुत गहन और अद्भुत

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