ग़ज़ल ©अंशुमान मिश्र

नमन, माँ शारदे

नमन, लेखनी


नाव खुद चलती बनी मझधार फिर क्या कीजिए?

ज़िन्दगी ही जान  का आज़ार फिर क्या  कीजिए?


इन  हकीमों  की  दवाओं का नहीं कुछ फायदा,

क़ल्ब घायल, आस है बीमार फिर क्या कीजिए?


साथ  जो  गर  हो  कोई, तनहाइयांँ  रहती नहीं,

साथ  तन्हाई  रही  है  यार.. फिर  क्या कीजिए?


जान  जिनकी जान में बसती है, वो अनजान बन,

जान  लेने  को  खड़े  तैयार,  फिर  क्या  कीजिए?


है  सुना,  झूठी   क़सम  से  जान   जाती   है  यहांँ,

हम मुसलसल मर चुके सौ बार, फिर क्या कीजिए?


अब   निज़ाम-ए-क़ल्ब  ही  करते  शहर  बर्बाद हैं,

हो चुकी फरियाद  हर  बेकार, फिर क्या कीजिए?

©अंशुमान मिश्र


                                                   

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