कविता- पुकार ©गुंजित जैन
छंद- पञ्चचामर
मात्रा- 24, वर्ण- 16
दो-दो चरण समतुकांत
जगण रगण जगण रगण जगण + गुरु
ISI SIS ISI SIS ISI S
शीर्षक- पुकार
विचार भिन्न-भिन्न चित्त की धरा लिखे गए,
लिए नवीनता, मिटा परंपरा लिखे गए,
क्षणोपरांत नव्य में नवीनता नहीं रही,
परंतु वृक्ष-सी विशाल सभ्यता नहीं रही,
सजा विशाल, भव्य वृक्ष स्वर्ण-वर्ण सीप से,
जिन्हें कनिष्ठ हस्त में समेटता समीप से,
अपूर्ण छोड़ जीर्ण स्वर्ण-हार, नष्ट हो गई,
मुझे पुकारती हुई पुकार नष्ट हो गई।
अनंत अंतरिक्ष सा विशाल, भव्य ताल था,
प्रवाहमान नीर ज्यों, चलायमान काल था,
प्रसूति एक छोर और मुक्ति एक कूल था,
समीर का प्रचंड वेग हर्ष और शूल था,
सहे असंख्य ज्वार-घात देह-नाव निर्मला,
परंतु ज्वार का प्रहार घोर उग्र हो चला,
हुई न नाव तीव्र धार पार, नष्ट हो गई,
मुझे पुकारती हुई पुकार नष्ट हो गई।
सुनी निनाद चित्त में उठी मुझे पुकारती,
समस्त हर्ष-शूल प्राण के समेट धारती,
अभिज्ञ था न काल के चढ़ाव से, उतार से,
हुआ मुझे सुज्ञान आत्मचित्त की पुकार से,
"करो न व्यर्थ देह को महत्वहीन भूल में,
सदैव धूल की रही, मिली सदैव धूल में",
बता विनाश-रूप सत्य सार, नष्ट हो गई,
मुझे पुकारती हुई पुकार नष्ट हो गई।
©गुंजित जैन
अहो अद्भुत भाव व शब्द संयोजन
जवाब देंहटाएंसादर आभार दीदी🙏
हटाएंअत्यंत उत्कृष्ट एवं प्रभावशाली पंचचामर छंद सृजन 💐
जवाब देंहटाएंसादर आभार मैम🙏
हटाएंअत्यंत उत्कृष्ट पञ्चचामर छंद सृजन, वाह
जवाब देंहटाएंसादर आभार🙏
हटाएंअनुपम और उत्कृष्ट रचना बन्धु 👌👌👏👏
जवाब देंहटाएंसादर आभार भाई जी🙏
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