यूं ही हमेशा सलामत रहो तुम ©रेखा खन्ना

नमन, माँ शारदे
नमन लेखनी 



कुछ ज़ख्म रिसते नहीं हैं
कुछ तो जिस्म में टूटता है
पर टूटने की आवाज़ नहीं आती है
कुछ तो फांस बन कर चुभता है कहीं भीतर ही भीतर 
पर कोई नुकीली चीज नज़र नहीं आती हैं
ज़मीं पर जाने क्या क्या बिखरा हुआ है
जब चलो तो किरचों का एहसास होता है
पर बिखरे जज्बातों को नंगी आंखों से देखना मुश्किल हो जाता है
सोचती हूंँ अक्सर कि क्या टूटा और बिखरा हुआ है यहांँ वहांँ पर
मैं, दिल, एहसास, यादें, वजूद आखिर  क्या क्या बिखरा है?
यूं तो वजूद में कोई कमी नहीं दिखती है
जिसको देखो वही दुआ देता है कि यूं ही सलामत रहो तुम हमेशा
फिर सोचती हूँ कि क्या कहा, ये कैसी दुआ है
यूं ही हमेशा सलामत रहो तुम... 

मतलब यूँ ही भीतर से टूटी हुई, अपने भीतर खुद को ही खोजती हुई, अपने वजूद की तलाश करती हुई, अपने वजूद के बिखरे टुकड़ों को समेटती हुई, अपने दिल के ज़ख्मों को रिसते हुए देखती हुई, कहीं कुछ बाकी तो नहीं रह गया समेटने को इस कश्मकश में उलझी हुई, यां फिर धीरे धीरे मौत की तरफ खुद को धकेलती हुई.... क्या इस तरह रहूँ हमेशा क्योंकि यही तो सत्य है और दुआ भी यही की गई है कि यूं ही हमेशा सलामत रहो तुम।

फिर खुद पर ही हँसी आ जाती है ये सोच कर कि दुआ देने वाले को क्या पता कि कैसी हूँ मैं भीतर से। बाहर से तो सुंदर और खुश दिखती हूँ पर भीतर किस उथल-पुथल से बेजार हूँ ये तो वो नहीं जानता ना। चलो बिखरी ही सही, जो दुआ मिली जैसे भी मिली है कबूल है।

पूरी होकर भी अधूरेपन से दो चार ही सही पर फिलहाल जिंदा तो हूँ। चलो यही सही। ना टूटे हुए टुकड़ों की तलाश खत्म हुई ना खुशियों की बहार मिली। जब भी मैं खुद से मिली, अधूरी ही मिली।

©दिल के एहसास। रेखा खन्ना

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