ग़ज़ल ©वाणी
जागे से कितने घर देखे रात की ख़ामुशी में
दीवार पे साए ही तो थे रात की ख़ामुशी में
गुल-बूटे औ' बाग़ जब सो जाते हैं ख़्वाबों को ओढ़े
तब रात-रानी ही ख़ुशबू दे रात की ख़ामुशी में
दिन भर ख़ुद अपनी लगाई आतिश में दिल जल रहा था
अब शम्'अ' सा बुझ रहा है ये रात की ख़ामुशी में
तन्हाई में चुभते हैं जब यादों के नश्तर से अक्सर
गोशे में हम रोते हैं खुल के रात की ख़ामुशी में
गर नींद है तो फिर इन जलती आँखों में तू उतर आ
गर मौत है तो ले चल याँ से रात की ख़ामुशी में
काटी नहीं जाती अब मुझसे हिज्र की लंबी रातें
कोई मिरे दिल को बहला दे रात की ख़ामुशी में
हो झील में चाँद उतरा या ख़्वाब में खोई 'वाणी'
सब अपने ही अश्क़ से भीगे रात की ख़ामुशी में
©वाणी
बहुत खूब
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आपका 🙏
हटाएंबहुत ही खूबसूरत उम्दा ग़ज़ल ❤️👌👌
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया आपका ❣️
हटाएंबहुत खूबसूरत।👏👌🌹
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मैम 🙏
हटाएंबहुत शुक्रिया आपका 🙏
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मैम 🙏
जवाब देंहटाएंमरहबा मरहबा
जवाब देंहटाएंशुक्रिया शुक्रिया 😅
हटाएंबेहतरीन गज़ल 👌👌👌😍
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया दीदी ❣️
हटाएंबेहद ख़ूबसूरत ग़ज़ल ❤️❤️
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया ❣️😘
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