साड़ी में नारी ©रमन यादव

 साड़ी में जो नारी है, उसके भी कुछ भाव हैं,

कुछ प्रेम है, कुछ क्रोध है, कुछ अटूट लगाव हैं, 


छ: मीटर का वस्त्र लपेटे, बच्चा कांधे रखती है,

रात दिन वह अपना देकर, परिवार को बांधे रखती है,


साड़ी का पल्लू पंखा बनता, जब शिशु शरीर से पसीना टपके,

वो पल्लू ही पर्दा बनता , जब भूख से नन्हा बालक तड़पे, 


साड़ी में केवल जिस्म नहीं है, एक रूह मकान बनाए बैठी है,

जहां पिता का साया, प्रेम पति का,  माँ की छाया रहती है,


सौंदर्य उसके मुख पर दिखता, मन के भाव न जाने कोई,

साड़ी हुस्न की आग लगाए, चित्त रूदन ना जाने कोई,


जिन पाँव बेडियाँ बाँध रखी हैं, उनको अब स्वच्छंद करो, 

नजरों से नजर मिलाओ, बदन ताड़ना बंद करो,


उदर गोचर सब देखते, मानसिक द्वन्द्व  दिखते ना, 

नजर जिस्म के उभार पर रुकती, पर क्षणिक प्रलोभन टिकते ना, 


साड़ी नहीं है लोक दिखावा, संस्कृति की पहचान है,

जिस्म छरहरे, सुडौल बदन, कुछ दिन के मेहमान हैं, 


भोग की वस्तु मान रहे सब, आंचल में उसके झांक रहे सब,

मां का दूध याद करो, बनी ममता की साख रहे तब,


जिस वक्ष को तुम ताड रहे हो, उसमें भी दिल धड़कता है, 

घूरती हजारों नजरों से, पल-पल वो तड़पता है, 


आसमान में चांद था रोशन, वो धरा पर चंद्र बनी, 

पहन के साड़ी पृथ्वी पर,  वह आकर्षण का केंद्र बनी,


सिर्फ जिस्म देखने वालों को, सीने और पीठ के दर्शन होंगे, 

पवित्र प्रेम के प्रेमी के, प्रेयसी के हाथ में कंगन होंगे|

                                                           @रमन यादव

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