ग़ज़ल ©हेमा काण्डपाल
सरसों के खेतों में अपने , काग़ज़ धानी करते करते
ग़ज़लें सारी लिक्खी हमने , ख़ूँ को पानी करते करते
मजबूरी के चावल भूने , लाचारी दो मुट्ठी डाली
हम ने खाया गम को अपने , फिर गुड़-धानी करते करते
इस दुनिया में जो भी भाया, उस को हम ने ख़ुद सा समझा
इक अरसा बीता है हम को , ये नादानी करते करते
क्यों दरिया भर मिस्रा-ए-ऊला उसकी मय्यत पर था रोया
जिस शाइर का दम निकला था मिस्रा-ए-सानी करते करते
पहले उनसे दूरी रक्खी , फिर ख़ुद ही था इज़हार किया
ऐसे दिल ने चाहा उनको , आना - कानी करते करते
सब के मन की करते करते , जाने बीती कितनी सदियाँ
हमको तो जीना था यारो , बस मन-मानी करते करते
ग़म के मौसम में क्यों कर ली, हमने इन ग़ज़लों से यारी
अब तो सारी उम्र कटेगी, अश्क-बयानी करते करते
वाह बेहद कमाल की गजल 👌👌👌
जवाब देंहटाएंBahut bahut shukriya ❤️
हटाएंBehad khoobsurat gajal ma'am 👌👌👏
जवाब देंहटाएंShukriya ji
हटाएंबेहतरीन मर्मस्पर्शी गज़ल 💕👌👌👌
जवाब देंहटाएंShukriya didi
हटाएंउम्दा गजल👌👌
जवाब देंहटाएंबहुत ही खूबसूरत 💐
जवाब देंहटाएंShukriya sir 🙏
हटाएंबेइंतेहा खूबसूरत.. 👌👌👌💐💐
जवाब देंहटाएंShukriya ji
हटाएंShukriya ma'am
जवाब देंहटाएंबहुत ही उम्दा रचना है ये 🔥
जवाब देंहटाएंआप सभी का हृदयतल से धन्यवाद
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