ग़ज़ल ©हेमा काण्डपाल

 सरसों  के  खेतों  में  अपने  ,  काग़ज़  धानी  करते  करते 

ग़ज़लें  सारी  लिक्खी  हमने  ,  ख़ूँ  को  पानी  करते  करते 


मजबूरी   के   चावल   भूने   ,   लाचारी   दो   मुट्ठी   डाली 

हम  ने  खाया  गम को अपने , फिर  गुड़-धानी करते करते 


इस दुनिया में जो भी भाया, उस को हम ने ख़ुद सा समझा

इक  अरसा  बीता  है  हम  को ,  ये   नादानी  करते  करते


क्यों दरिया भर  मिस्रा-ए-ऊला उसकी मय्यत पर था रोया 

जिस शाइर का दम निकला था मिस्रा-ए-सानी करते करते


पहले  उनसे  दूरी  रक्खी ,  फिर ख़ुद ही था इज़हार किया

ऐसे  दिल  ने  चाहा  उनको  ,  आना - कानी  करते  करते 

 

सब  के  मन की करते करते , जाने बीती  कितनी सदियाँ

हमको  तो  जीना था यारो ,  बस  मन-मानी  करते  करते 


ग़म के मौसम में क्यों कर ली,  हमने इन  ग़ज़लों से यारी 

अब तो  सारी  उम्र  कटेगी,  अश्क-बयानी करते  करते  

                                 @    हेमा काण्डपाल 'हिया'

टिप्पणियाँ

  1. बेइंतेहा खूबसूरत.. 👌👌👌💐💐

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  2. बहुत ही उम्दा रचना है ये 🔥

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  3. आप सभी का हृदयतल से धन्यवाद

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