कवि धर्म ©विपिन बहार
लय-छंद उन्मुक्त हुए,शब्दों का तांडव जारी हैं,
कुचल दिए गए कुसुम सारे,अब पल्लव की पारी है,
मैं बैठा अबोध शिशु सा, खुद की पराजय देखता हूँ,
मैं खुद की काया से विमुख,खुद की विजय देखता हूँ,
ये अनल आज क्षितिज से ऐसे अंगार दिखाता हैं,
भूखे,नंगे,प्यासों पर वो अपना वार दिखाता हैं,
उसके घर न नौकरी,एक माँ के सर पे टोकरी,
रह रहा वो फुटपाथ पे,उसके सर पे न झोपड़ी,
ऐ माँ वीणा!मैं ख़ुद को अंदर ही अंदर बहुत कोसता हूँ,
क्या लिखा,क्या रह गया मैं अंदर का कवि खोजता हूँ,
स्वप्न उड़ा रही आँधी है,जीवन बन के रहा समाधि हैं,
दरिद्रता ऐसे फैली हुई,चहुँ दिशा व्याधि ही व्याधि हैं,
मैं लोलुपता, प्रलोभन,प्रसिद्धि के चरण मे पड़ा रहा,
यहाँ देखा एक दींन खुद के जीवन-मरण में पड़ा रहा,
जली हुई एक बेटी है,परिवार की लाश शैय्या पे लेटी हैं,
विलाप में कह रहा गाँव,नही जन्माओ कोई अब बेटी हैं,
मैं अपने उर को बैठ के आज खूब नोचता-खरोचता हूँ,
ऐ माँ वीणा!मैं ख़ुद को अंदर ही अंदर बहुत कोसता हूँ,
क्या लिखा,क्या रह गया मैं अंदर का कवि खोजता हूँ,
किसी को नही अनुशासन हैं,सभी के हस्त में हुताशन हैं,
किससे बचें अब ये अबला,सभी बन गए यहां दुस्सासन हैं,
सब बन गए भीषण चपला,इस धरा को चीर रहे,
बेबस मासूम के चक्षुओं में,बेवजह केवल नीर रहें,
मैं झंझावत ही झंझावत सभी के शरण पाता हूँ,
सभी खुद को राम कहते,पर मैं क्यों रावण पाता हूँ,
मैं कैसा कवि हूँ ये बैठे-बैठे व्याध मन से सोचता हूँ,
ऐ माँ वीणा!मैं खुद को अंदर ही अंदर बहुत कोसता हूँ,
क्या लिखा,क्या रह गया मैं अंदर का कवि खोजता हूँ,
@विपिन"बहार"
Amazing 🔥🔥
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना 👌👌👌
जवाब देंहटाएंबेहतरीन
जवाब देंहटाएंउत्तम 👏👏
जवाब देंहटाएंवाह 💐
जवाब देंहटाएं