ग़ज़ल ©परमानन्द भट्ट

नमन, माँ शारदे 

नमन, लेखनी 

 

गाँव हर शहर में सूरज का रिसाला जाये,

भोर होने को है अब दौर ये काला जाये। 


आँख खुलते ही जो हर रोज़ बिखर जाता है,

आज से आँखों में वो ख़्वाब न पाला जाये । 


जिनके गीतों में महकती है वतन की ख़ुशबू,

उनके कंधों पे अदब का ये दुशाला जाये। 


पेड़ पर बैठे परिंदे का भी हक है फल पर,

अब यहाँ से कोई पत्थर न उछाला जाये । 


है बहुत काम भले ही हमें दफ़्तर घर के,

बाप के साथ भी कुछ वक्त निकाला जाये। 


आज सूरज से खुलेआम कहेंगे हम सब,

"गाँव के आखिरी घर तक भी उजाला जाये"। 


ये 'परम' प्यार की गंगा है बचा लो इसको,

कोई कूड़ा यहाँ नफ़रत का न डाला जाये। 


©परमानन्द भट्ट

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