कविता- शिव संस्थापन ©सूर्यम् मिश्र
नमन, माँ शारदे
नमन, लेखनी
लंका पर विजय कामना से।
रावण-वध प्रबल भावना से ।।
श्री राम उदधि के कूलों पर।
थे सत्य साधना मूलों पर ।।
तब मन में एक विचार हुआ।
यूँ भक्ति भाव विस्तार हुआ।।
निकला हूँ विजय साधने जब।
शिव संस्थापित हो जाएँ तब।।
यह सोच राम विदुजन समक्ष।
आए रखने यह दक्ष पक्ष।।
यह मत विद्वानों को भाया।
सबका मन इससे हर्षाया ।।
बोले प्रभु है यह कार्य उचित।
हो शीघ्र कार्य संसार विदित।।
शिव सफल करेंगे मत निश्चय।
प्रमुदित हो बोले सब जय जय।।
शिवलिँग स्थापित करवाएँ।
आकर उसमें शिव बस जाएँ।।
धारें प्रभु अब वेदादि मर्म।
संपन्न करें यज्ञादि कर्म।।
सत कोटि सुमंगल दायक है।
यह कार्य हृदय हर्षायक है।।
आचार्य धार, कर विधि-विधान।
पूरा कर दें यह अनुष्ठान।।
आचार्य सुशोभित हो वैसा।
जो वैष्णव हो शिव के जैसा।।
जो कर्म कांड का ज्ञाता हो।
वैदिक,प्रकांड आध्याता हो।।
सबने सबका मस्तक देखा।
खिँच उठी रंज रंजित रेखा।।
आचार्य कहाँ से लाएँ अब।
गुण जिसमें यह भर जाएँ सब।।
चिर मौन सभा भर में छाया।
श्री जामवंत मन कुछ आया।।
वह बोले विसरित शंका में।
है वैष्णव ऐसा लंका में।।
है व्यक्ति किंतु लंकेश वही।
जो कर सकता यह कार्य सही ।।
ब्राह्मण कुल का वह वैष्णव है।
शिव भक्त परम है,अभिनव है ।।
पर क्यों वह यज्ञ कराएगा?
निज ही निज मृत्यु बुलाएगा?
श्री राम शांत थे,बोल उठे।
अद्भुत प्रसून सम डोल उठे।।
राक्षस सँग रावण धर्मी है।
शिव परम् भक्ति का कर्मी है।।
निश्चय ही वह आ जाएगा।
आकर यह यज्ञ कराएगा।।
निज शत्रु कभी विश्वास करो।
उठकर तुम तनिक प्रयास करो।।
तुम दूत बने लंका जाओ।
संदेशा मेरा कह आओ।।
वह यज्ञ कराने को आवें।
यजमान प्रफुल्लित कर जावें।।
मुझ पर इतना उपकार करें।
आचार्य नमन स्वीकार करें।।
फिर जाम्बवान लंका आए।
प्रभु का वह संदेशा लाए।।
रावण को जब यह ज्ञात हुआ।
तब तिमिर हृदय में प्रात हुआ।।
भट हाथ जोड़ कर आते थे।
रास्ता उन्हें बतलाते थे।।
जब सभा मध्य वह हुए खड़े।
काँपे भट जो थे बड़े-बड़े।।
तब उठी सभा सब चिंतन से।
लंकेश उठा सिंहासन से।।
अभिनंदन वह अभिराम किया।
दोनों कर जोड़ प्रणाम किया।।
बोला अभिनंदन वरण करें।
हे बाबा आसन ग्रहण करें।।
तब जामवंत जी मुस्काए।
कुछ कहना था ना कह पाए।।
बोले प्रणाम के, वंदन के।
मैं योग्य नहीं अभिनंदन के।।
मैं अंशज तिमिर विनाशी का।
मैं चर हूँ राम प्रकाशी का।।
यह सुनकर रावण मुस्काया।
उसके मन जाने क्या आया।।
बोला बाबा के मित्र आप।
दिखती है उनकी अमिट छाप।।
कैसे ऐसा अपवाद किया?,
क्या कार्य, मुझे जो याद किया?
तब रीछराज मन हर्ष बहा।
उठ कर अपना सत्कार्य कहा।।
अधरों पर धर रामेश नाम।
रघुवर करते हर पुण्य काम।।
शिवलिंग प्रतिष्ठानोपरांत।
सत्कार्य सफल हो दिग दिगांत।।
पूरा हो जाए अनुष्ठान।
यज्ञादि कर्म सब विधि विधान।।
इसलिए यहाँ मैं आया हूँ।
आचार्य निमंत्रण लाया हूँ।।
तब रावण मुस्काकर बोला।
निज अधर अधर पर धर बोला।।
वह बात शब्द में विस्तृत थी।
पर करने वाली विस्मृत थी।।
आचार्य बनूँ, स्वीकार मुझे।
पर आया एक विचार मुझे।।
इस मन में थोड़ा विस्मय है,
क्या पुण्य कार्य लंका जय है?
तब मौन हुए कुछ जाम्बवान।
बोले लंकापति स्वयं ज्ञान।।
है ऐसी कोई बात नहीं।
जो लंकेश्वर को ज्ञात नहीं।।
श्री राम युद्ध को उद्यत हैं।
यह बात तुम्हें सब अवगत हैं।।
जो प्रश्न तुम्हारा विस्मय है।
हाँ पुण्य कार्य लंका जय है।।
तब रावण थोड़ा मुस्काया।
आसन से उठ नीचे आया।।
वो कहा राम तैयार रहें।
मन में यह किन्तु विचार रहें।।
बस यज्ञ वहाँ हो, द्वंद न हो।
सत्कार्य रहे, छल छंद न हो।।
यजमान गेह पर यदि ना हो।
अवसर हवनादि यज्ञ का हो।।
सब संग्रह है आचार्य कार्य ।
सामग्री सब है अपरिहार्य ।।
मैं साथ सिया को लाऊँगा ।
शिव संस्थापन करवाऊँगा ।।
©सूर्यम् मिश्र
अद्भुत अद्वितीय रचना 🙏🌺
जवाब देंहटाएंअहा, अद्भुत अद्भुत। नमन है। वंदनीय कविता, उत्कृष्ट शब्द प्रवाह, शब्द चयन, लय।
जवाब देंहटाएंअहा!!!!!अद्भुत!!!!! अतुल्य!!!!! अत्यंत उत्कृष्ट एवं ओजपूर्ण सृजन 💐🙏🏼
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