लघुकथा - प्यार दोस्ती है ©शैव्या मिश्रा

नमन, माँ शारदे 

नमन, लेखनी  


प्यार दोस्ती है, अक्सर मेरी इन तन्हा रातों को तुम्हारी कही हुई ये बात और भी तनहा करती है रेहान। यूँ तो तुमसे जुड़ी हर बात मेरे ज़ेहन किसी फ़िल्म के फ़्लैशबैक जैसी चलती ही रहती है मगर एक जगह जहाँ आकर मेरी रील अटक जाती है जब तुमने अपनी मुहब्बत का इज़हार किया था, तुमने मेरे माथे को चूमते हुए मुझसे वादा किया था कि एक दिन तुम मुझे हमेशा के लिए अपना बना लोगे!  पर अफ़सोस रेहान ये वादा तो वादा ही रह गया। मैं तुमको क़सूरवार ठहराने से पहले ये साफ़ कर देना चाहती हूँ, मैंने जिस दिन से तुम्हें चाहा था, उस दिन से ये भी जाना था, मेरा और तुम्हारा मिलना, एक हो जाना केवल दुनिया में तमाम तरह की रुसवाइयाँ ही लाता, ये भी कि ये जो तुम्हारी और मेरी हैसियत का फ़ासला था उसे नाप पाना हमारी मुहब्बत के लिए लगभग नामुमकिन था। 

कहाँ मैं खान इंडस्ट्रीज के मालिक राशिद ख़ान की इकलौती बेटी कहाँ तुम एक मुलज़िम के बेटे। ये सब जानते हुए भी मुझे तुमसे इश्क़ हो गया।

मेरे वालिद को भी तुम्हारे हुनर, तुम्हारी क़ाबिलियत का अन्दाज़ा था, इसीलिए बचपन से ही उन्होंने तुम्हें हमारे साथ पढ़ाया था! तुम क्लास में अव्वल आते, मैं बमुश्किल पास हो पाती! बचपन छोड़ के जवानी के दहलीज़ पे कदम पर कदम रखते ही मैं तुम्हारी तरफ़ खींचती रही। तुम मगर एक लंबे वक़्त तक अपनी सीमा में बंधे रहे, शायद तुमको भी अंदाज़ा था मैं तुम्हारी पहुँच से परे थी।

"सबा, इंसान अगर चाहे भी तो भी लपक कर चाँद को तो नहीं पकड़ सकता, तुम आसमान हो सबा, मैं एक काला बादल, मेरे पास आकर तुम रुसवाईंयों में ग़ुम हो जाओगी" तुम अक्सर क़हते!और मैं झट से तुम्हारा गले में बाहें डाल कर कहती "लो चाँद को समेट लो अपनी बाहों में"! और तुम हौले से मुस्कुरा देते।


उन्हीं दिनों तुम्हें ख़ास वज़ीफ़ा मिला, तुमको अमरीका जा कर पढ़ने का मौक़ा। हम दोनों को ये हमारी क़िस्मत बदलने का मौक़ा लगा, यदि तुम एक कामयाब इंसान बन जाते तो अब्बा हमारे निकाह के लिए ज़रूर मान जाते। इस उम्मीद में मैंने तुमको ख़ुद से दूर जाने दिया। 

तुम्हारे जाते ही सच में क़िस्मत बदल गई रेहान, अब्बा को बिज़नेस में घाटा होने लगा, एक एक कर के हमारी तमाम ज़मीन जायदाद बिकने लगी। फिर भी मैं अपनी की हुई बचत से तुमको पैसे भेजती रही ताकि तुमको वहाँ कोई परेशानी न हो। हालात बदतर होते गये, और एक दिन अब्बा ऐसे सोये की उठे ही नहीं। 

जानते हो रेहान वक़्त के साथ लोगों को बदलते ख़ूब देखा है मैने मगर तुम्हारा यूँ बदल जाना बहुत तकलीफ़ देता था। तुम अब्बू के मरने पे भी ना आये। अब तुम एक कामयाब इंसान थे तुमको मेरी ज़रूरत ना थी। सो तुमने फ़ोन करना, ख़त लिखना सब बंद कर दिया।

एक दिन तुम्हारी अम्मी ने बताया तुमने किसी विदेशी से निकाह कर लिया है। 

तुम्हारे धोखे ने मुझे पूरा तोड़ दिया था। मेरे मन मी अनगिनत सवाल थे। फिर तुम्हारा फ़ोन आया, तुमने बताया कि कैसे तुमने मेरे साथ मुहब्बत का नाटक किया, ताकि तुम मेरे बाप से उस बेइज़्ज़ती का बदला ले सको  जिसमे मेरे बाप ने तुम्हारे बाप को थप्पड़ मारा था, "सबा मैंने तो पहले ही सोचा था कुछ भी हो जाये तुमको रुसवा कर के छोड़ दूँगा, मगर कुदरत का इंसाफ़ देखो जिस ज़मीन जायदाद पर तुम्हारे अब्बू को इतना ग़ुरूर था, वो सब उनसे छिन गई रह गई है बस वो हवेली, और उसे तो मैं ही ख़रीदूँगा बहुत जल्द और अपने अब्बू को तोहफ़े में दूँगा", कह कर तुम हंस दिये थे, एक ज़हरीली, बहुत ही ख़ौफ़नाक हंसी! अपने बदले की आग में तुम ये भी भूल गये कि आज तुम जिस मक़ाम पे हो वहाँ भी तुमको मेरे अब्बू ने पहुँचाया था।

ख़ैर कोई बात नहीं, तुमने भले ही मुझसे प्यार नहीं किया पर मैं तुमको फिर भी अपना बनाऊँगी! तुम आ रहे हो ना कल हवेली नीलामी से ख़रीदने, मैं तुम्हारा इंतज़ार कर रही। कई शिकवे गिले है, तमाम बातें है जो तुमसे करनी है! बताना है तुमको, दिन तो गुज़र जाता है, मगर ज़मीन में १० फ़ुट नीचे, रातें कितनी तनहा है, कितना दम घुटता है, तुमको भी तो एहसास कराना है! उस दिन तुम्हारा फ़ोन आने के बाद मैंने भले ही मौत को गले लगा लिया, मगर इन्तेज़ार आज भी है तुम्हारा, प्यार दोस्ती है ना…. तो निभाना आके मेरे साथ!!!!

©शैव्या मिश्रा

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