मुझे नहीं बनना है © रेखा खन्ना

 कहने को देवी है और पूजी जाती है लेकिन अगर हो जाए कहीं लड़ाई तो मां बहन की गाली बन जाती है। त्याग की मूर्ति घोषित की गई है, वात्सल्य से भरी बताई गई है।

अपने भीतर अनेक दर्दों के बीजों को बोए रखती है

माँ बनने का दर्द सहती है पर बहुत बार कठिनाई के कारण बच्चे का मुंह देखे बगैर ही स्वर्ग सिधार जाती है।

औलाद ना हो तो बांझ कहलाने का दर्द सहती है पर पुरुष अगर बाप बनने की काबिलियत ना रखता हो तो उसे बांझ ना कह कर उसके हिस्से का दोष भी स्त्री के माथे मढ़ दिया जाता और बेटी को जन्म दे दे तो बेटा ना देने का ताना सहती है अधिकांश समय बेटी होने का ताना सुनती है और बेटी पैदा करने पर मार दी जाती है। गरीब मां-बाप के घर दहेज़ की समस्या बन पैदा होती है और लालची ससुराल में केरोसिन और कुकर फटने की घटना की भेंट चढ़ जाती है।

कभी कभी लगता है जैसे स्त्री एक ना‌ खत्म होने वाली परीक्षा लेकर पैदा होती है। परीक्षा, खुद के अस्तित्व को साबित करने की और बीमार मानसिकता वाले लोगों से अपनी अस्मिता की रक्षा करने की पर एक वरदान भी लेकर आती है, वरदान सृजन का।

अक्सर सोचती हूँ कि प्रकृति ने सिर्फ औरत को ही अधिकार दिया है सृजन का, क्या सिर्फ इसलिए अनगिनत दर्दों को सहन कर के भी उफ्फ़ करने का हक नहीं है उसको। 

अक्सर सोचती हूँ कि जिस तरह हम मनुष्य बेटी के होने पर मातम मनाते हैं क्या जानवर भी ऐसा करते हैं, क्या वो भी मादा के जन्म लेने पर जननी को तिरस्कृत कर देते हैं ? क्या वो भी मादा के जन्म लेते ही जननी को मृत्युदंड देते हैं? मैंने तो किसी जानवर को बेटा बेटी में भेद-भाव करते हुए नहीं देखा है। 


कैसे हर ज़ुल्म-ओ-सितम, अत्याचार, दुःख दर्द, कठिन और जान निकाल देने वाले प्रसव के बाद नए जन्म की आस, नाइंसाफी, इन सबको जानते बूझते  हुए भी नकार कर सिर्फ सृजन कर्ता के अनमोल वरदान के लिए मैं स्त्री बन जाऊँ?


एक सृजनकर्ता का वरदान मिले इसलिए मुझे स्त्री नहीं बनना है।


तो क्या पुरुष बन जाऊँ?


हाँ! फिर पैदा होने पर सोग नहीं जश्न मनाया जाएगा। वंश बेल बढ़ाने वाला और वारिस कहलाऊंगा। स्त्रियों की भांँति दुत्कार और प्रताड़ना की तकलीफ़ को झेलना नहीं होगा। ना दहेज  के लिए मरना पड़ेगा और ना ही चौबीस घंटे परिवार की खिदमत करने के लिए जहमत उठानी पड़ेगी। ना ही स्त्रियों की तरह प्रसव पीड़ा की कठिन प्रक्रिया से गुजरना होगा। ना ही रोक टोक होगी और ना ही फब्तियां कसेगा कोई। कहीं भी और कभी भी वक्त-बेवक्त आने जाने पर कोई अनगिनत सवाल नहीं करेगा। ना ही कभी कोई कपड़ों को लेकर और उठने बैठने पर मुफ्त का ज्ञान देगा। 


पर कहते हैं ना कि पुरूषों को रोना शोभा नहीं देता है क्योंकि वो शारीरिक रूप से स्त्रियों से बलशाली होते हैं पर क्या उनमें जज़्बात नहीं होते हैं? क्या वो एहसासों से अछूते होते हैं?

क्यूँ पुरूषों को बचपन से ही आंँसूओं को पी जाना सिखाया जाता है, क्यूँ वो अपने दिल को कब्र बना कर हर तकलीफ़ को उसमें दफ़न कर देते हैं।

ना अपनी औलाद को गले लगा पाते हैं ना अपना दुःख औलाद को बताते हैं। बस कोहलू का बैल बन कर परिवार की जरूरत को पूरा करने में उम्र बिता देते हैं। 

कुछ सरल स्वभाव के तो कुछ वहशीपन‌ लिए होते हैं। सरल स्वभाव वाले अपनी दुःख तकलीफ़ की कब्र दिल में बना कर रखते हैं और दर्द को बिना जाहिर किए पी जाते हैं। उन्हें ख्याल होता है कि आंँसू कमजोरी की निशानी है और वो कभी कभी कमजोर होते हुए भी खुद को मजबूत दिखाते हैं और वहशी स्वभाव वाले तो इंसान को इंसान ही नहीं समझते। वो तो बस अपना गुस्से और विकृत मानसिकता के अधीन हो कर विनाश की ओर चल पड़ते हैं। राह में जो भी आए उसे गर्त में धकेल देते हैं।


नहीं, मैं कैसे सब जज्बातों को छुपा कर खुल‌कर रो भी ना सकूंँ और  किसी से अपना दुःख भी सांझा ना कर सकूं और अपने जज्बातों की चलती फिरती कब्र यां फिर वहशी बन जाऊँ? कैसे कभी कभी कमज़ोर होने पर भी खुद को मजबूत दिखाने का ढोंग करता रहूंँ।


नहीं मुझे पुरूष नहीं बनना है।


तो क्या मोहब्बत बन‌ जाऊँ?


हाँ! मोहब्बत तो बहुत खूबसूरत एहसास है। दो रूहों को मिला देती है। जहाँ मोहब्बत होती हैं वहाँ खुशियों का बसर होता है। मुश्किल घड़ी भी एक दूसरे का हाथ पकड़कर निकल जाती है। रिश्ते में भरोसा भी बना रहता है। मोहब्बत तो खुशहाली की नींव होती है।

पर मोहब्बत के संग संग तो हाथ पकड़ कर दुःख भी चलता है। जहांँ-जहाँ मोहब्बत होती है वहांँ-वहांँ दुःख बिन‌ बुलाए मेहमान की तरह चला आता है और दिल में घर बना कर ठहर जाता है। बहुत बार तो धोखा और  तिरस्कार भी संग लाता है जो सब कुछ लील जाता है और एक खालीपन पीछे रह जाता है और रह जाती है अधमरी रूह जो ना जिंदा कहलाती है और ना ही मुर्दा करार कर दी जाती हैं। माना मोहब्बत बहुत खूबसूरत होती है पर क्या दुःख को अपनाने की शर्त पर मिलती है?


नहीं, मुझे दुःख का बायस नहीं बनना है। मुझे मोहब्बत की आड़ में दुःख नहीं बनना है।


तो क्या हवा बन‌ जाऊँ?


हाँ वो तो जीवन का आधार है। साँसे चलेंगी तभी चलेंगी जब हवा होगी। पर गर वो बेकाबू हो कर तूफानों में बदल जाएं तो साँसे देने की जगह प्राण ले जाएं। तो क्या तूफानों का साथ देकर विनाशकारी बन जाऊंँ? नहीं मुझे विनाशकारी तूफान में नहीं बदलना है।


नहीं मुझे हवा नहीं बनना है।


तो क्या अग्नि बन जाऊँ?


जब तक समुचित मात्रा में गर्माहट नहीं होगी तब तक सृष्टि का सृजन ठीक से नहीं होगा। देखो ना एक अंडे से जीव भी तभी निकलता है जब उसे मोहब्बत और चाहत की गर्माहट मिलती है। अनाज भी इसी आधार पर उगता है। पर क्या अग्नि कभी दावानल का रूप लेकर सब कुछ जला कर खाक ना कर देगी।

अगर उग्र रूप धारण कर ले तो जीवन दान की जगह सब कुछ जला कर राख कर देगी।

तो क्या मैं प्रलयंकारी बन जाऊँ ? लेकिन सब कुछ राख में बदल कर क्या हासिल होगा?


नहीं मुझे अग्नि नहीं बनना है।


तो क्या समंदर में छिपे विशालकाय पर्वत की नींव का छोटा सा पत्थर बन जाऊँ?


हां यही ठीक रहेगा। ना कोई मुझे देख सकेगा, ना छू सकेगा और ना ही कोई नुक्सान पहुंँचा सकेगा। पर नींव की जिम्मेदारी बहुत बड़ी होती है। अगर मैं डगमगा कर अपनी जगह से हिल जाऊँ तो विशालकाय पर्वत अपना संतुलन  खो देगा और भरभरा कर नीचे गिर जाएगा और फिर अथाह सागर का रोष प्रकृति को सहना पड़ जाएगा क्योंकि पानी का वेग सब कुछ अपने भीतर गहराइयों तक खींच कर ले जाएगा और जल‌समाधि में बदल देगा।

नहीं मुझे जलसमाधि के पाप का भागीदार नहीं बनना है। 


नींव की जिम्मेदारी होती है सबको संभाल कर रखने की। अपनी जगह से डगमगा कर मुझे विश्वासघाती नहीं कहलाना है। 


नहीं मुझे नींव का पत्थर नहीं बनना है।


तो क्या भगवान बन जाऊँ?


भगवान सृष्टिकर्ता है। उस की मर्जी से ही सब कुछ होता है। उसकी मर्जी के बिना‌ एक पत्ता भी नहीं हिलता है। पर क्या वो सबकी मदद करता है? शायद हाँ शायद ना।

पर सोच कर देखूँ तो आज के युग में भगवान मुझे सिर्फ चिरनिंद्रा में सोया दिखता है। ना पुकारने पर जागता है और  ना घंटियों की आवाज़ सुनता है। 

ना अब कृष्ण किसी अबला की अस्मिता बचाता हुआ दिखता है और ना ही काली किसी दुष्ट का संहार करते हुए दिखती है ऐसे जैसे इस युग में भगवान सबकुछ देख कर भी सबकुछ अनदेखा कर रहा है। जब मैं किसी की दुःख तकलीफ़ को दूर करने का जरिया नहीं बन सकता तो भगवान बन कर क्या करूँ?


भगवान‌ बनकर मैं सबकुछ देख कर भी अनदेखा नहीं सकता।


नहीं मुझे भगवान नहीं बनना है।


तो क्या मैं सिर्फ़ "मैं" बन जाऊँ?


मैं कुछ भी बन जाऊँ पर एक बात तय है कि अच्छाई का पूरक बुराई और बुराई का पूरक अच्छाई है। हर चीज़ के दो पहलू हैं एक अच्छा और एक बुरा। दोनों एक साथ रहते हैं। कभी साथ नहीं छोड़ते हैं। कभी अच्छाई पर बुराई भारी तो कभी बुराई पर अच्छाई भारी।


हाँ समझ आ गया कि मुझे क्या नहीं बनना है। मुझे "मैं" कभी नहीं बनना है। "मैं" का भाव जब जब जागृत होगा तब तब अंहकार जन्म लेगा और वक्त के साथ साथ अपने आकार का विस्तार कर के सबकुछ तबाह कर देगा। 


प्रकृति मुझे जो भी बना दे सब मंजूर है बस मुझे  "मैं" ना बनाए कभी। जिस दिन मुझ में "मैं" का जन्म होगा उस दिन अंहकार और बुराई का जन्म होगा। नहीं मुझे तबाही नहीं बनना है।


नहीं मुझे "मैं" रूपी अंहकार नहीं बनना है।


©दिल के एहसास। रेखा खन्ना

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