कविता - थोड़ा तुम मुझ-सा हो जाना! ©अंशुमान मिश्र
नमन, माँ शारदे
नमन, लेखनी
जब मेरी आदत के चलते मैं कमीज़ पर दाल गिरा दूंँ,
चाय अगर तुमसे बनवा-बनवा कर, तुमको खूब थका दूंँ।
जब मेरे दफ्तर से वापस आने में देरी होने पर,
मैजिस्टिक टॉकिज में हम पहुंचें पिक्चर पूरी होने पर।
जब मेरा चश्मा सर पर रखकर मैं उसको घर भर खोजूंँ,
बाल तुम्हारे गुंँथकर जब मस्ती में उनको जी भर नोचूंँ।
नए तुम्हारे शैंपू से जब मैं अपनी गाड़ी धुल डालूंँ,
या फिर जब आलस के चलते अपना तकिया तुम्हें बना लूंँ।
जब जीवन के क्रूर क्षणों में, मैं अपना सब संबल खो दूंँ,
और तुम्हारे पूछे जाने पर मैं बुरी तरह से रो दूंँ।
जब मैं खुद निर्दोष रहूंँ, पर जग मुझको दोषी ठहराए,
हृदय वेदना रहे अपरिमित, पर शब्दों में कही न जाए।
तब तुम मुझसे गुस्सा मत होना, मुझको समझा लेना,
मेरी नादानी की आदी बन मुझको अपना लेना।
“मेरे आंँसू गिरें अगर तो सिर्फ तुम्हारे आंँचल पर,
मेरे हर निर्णय में सदा तुम्हारा हो विश्वास अमर।”
मेरी आंँखो के हर आंँसू के भावों को पढ़ना तुम,
मेरे जीवन की खुशियों के रिक्त घड़े को भरना तुम।
फिर जीवन के अंत क्षणों में कभी किसी सरिता के तट पर,
या फिर दो कप चाय संग लेकर बैठें हम घर की छत पर।
तुम अतीत के बीजों को बोकर, यादों के वृक्ष लगाना,
थोड़ा मैं तुम-सा बन जाऊंँ, थोड़ा तुम मुझ-सा हो जाना।
©अंशुमान मिश्र
मेरी रचना अपने पटल पर प्रस्तुत करने हेतु लेखनी का अनेकानेक बार आभार ❣️✨🙏
जवाब देंहटाएंबहुत -बहुत उत्कृष्ट कोटि की प्रेममय अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंबेहद शुक्रिया दीदी❣️🙏
हटाएंबेहद खूबसूरत कविता
जवाब देंहटाएंसादर आभार भाई❣️
हटाएंअत्यंत भावपूर्ण एवं हृदयस्पर्शी कविता 💐
जवाब देंहटाएंबेहद खुबसूरत कविता 👌👌
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