ग़ज़ल ©रानी श्री

नमन, माँ शारदे 

नमन, लेखनी 

बहर - 1222 1222 1222 1222



कहीं पर अर्ज हो जाए,ग़ज़ल की शाम क्या कीजे।

मुहब्बत कर्ज हो जाए, तुम्हारे नाम क्या कीजे।


कभी इतनी वफा भी मत निभाना जान ले ले जो,

मुकदमा दर्ज हो जाए, लगे इल्ज़ाम क्या कीजे।


कि जिसपर जान से ज़्यादा भरोसा कर लिया हमने,

वही खुदगर्ज हो जाए, मिले अंजाम क्या कीजे।


गजल गर चांद पर या रात पर हो इक नशीली सी,

बहकता तर्ज हो जाए, छलकता जाम क्या कीजे।


छिपाते रह रहे ख़ुद को कि ज़िम्मेदार बनने से,

निभाना फर्ज हो जाए, तो दूजा काम क्या कीजे।


दुआ में घोलकर सारा ज़हर हमको दगा मत दो,

दवा ही मर्ज हो जाए, कहीं आराम क्या कीजे।


लिखे थे प्यार के वो ख़त,कभी जो प्यार से 'रानी',

अगर वो हर्ज हो जाए, लिखा पैगाम क्या कीजे।

©रानी श्री 

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