गीत - सुधियाँ ©संजीव शुक्ला
सुधियाँ परछाईंहोती हैँ, आजीवन पीछा करतीं हैँ l
अमर सदा रहती हैँ मन में कभी नहीं मरतीं हैँ l
बादल बन कर नील गगन में,
पल पल में आकार बदलतीं l
कभी भोर का उजियारा फिर ,
शाम सुनहरी बन कर ढलतीं l
कभी ज्योत्सना जगमग शशि की,कभी अमा निशि बन डरतीं हैँ l
धूल बनी बिखरी मरुथल में,
रजकण बनी कभी सागर तट l
कभी अधर पर स्मित ज़ब-ज़ब
सुधियाँ मुखर हुईं मानस पट l
कातर नयनों के निर्झर से,बनकर अश्रु कभी झरतीं हैँ l
श्रावण में दामिनि कि द्युति बन,
सहसा चमक उठीं अंबर पर l
सरि की कल-कल जलधारा में,
डोलें डगमग नौका बन कर l
स्मृति नभ के इंद्र धनुष में, रंग अनेक कभी भरतीं हैँ l
बनकर सर-सर मंद झकोरे,
पत्तों से गाथा कहतीं हैँ l
भूले बिसरे गीत सुनातीं,
स्वर लहरी बनकर बहतीं हैँ l
एकाकी मन की संगिनि बन,विविध रूप सुधियाँ धरतीं हैँ l
वेद ऋचा बन वर्ण-वर्ण से,
ज्ञान शाश्वत दे जाती हैँ l
शांत सरोवर निर्मल मन में,
कभी लहर बन लहराती हैँ l
सुधियाँ पीड़ा हुईं कभी तो,औषधि बनीं पीर हरतीं हैँ l
©संजीव शुक्ला 'रिक़्त'
अत्यंत प्रभावशाली, उत्कृष्ट, हृदयस्पर्शी गीत है सर जी...सादर नमन🌹🌹🌹🌹
जवाब देंहटाएंसुधियाॅं पीड़ा हुईं कभी तो औषधि बनी पीर हरती हैं 🙏🙏🌺🌺 अत्यंत उत्कृष्ट, भावपूर्ण गीत सृजन भाई 🙏🌺
जवाब देंहटाएंबहुत ही भावपूर्ण गीत सर, नमन🙏
जवाब देंहटाएंअत्यंत उत्कृष्ट एवं भावपूर्ण गीत सृजन 💐🙏🏼
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर गीत सरजी👌👌
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