ग़ज़ल ©शिवांगी सहर

नमन, माँ शारदे 

नमन, लेखनी 


छुपा  लेता   है  कुछ  कहता  नहीं  है,

बुरा   है   दिल  मगर  इतना  नहीं  है।


किसी से कह के क्या तअर्रुफ़ कराएं,

ये  मुझसे  बात  ही  करता  नहीं   है।


तुम्हें   कैसे   कहें   अपना   मुसाहिब, 

हमारे   बीच   जब   रिश्ता  नहीं    है।


भला  कैसे  भरें   अपनी  ख़ला   को,

कोई  भी  दुख  मेरे   सुनता  नहीं  है।


मेरे   मुर्शिद    मुझे   तू   फ़लसफ़ा  दे,

मेरा  मन क्यों  कहीं  लगता  नहीं है।


अजब  सी  कश्मकश  में  ज़िंदगी  है,

है अच्छा और क्या अच्छा नहीं है।


ख़लिश सी हो गयी ग़ज़लों से मुझको,

"सहर" लिक्खा कोई पढ़ता  नहीं है।

©शिवांगी सहर

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