प्रेम परिहार ©लवी द्विवेदी
शैल सुता छंद
चरण- 4 (दो-दो पद समतुकांत)
विधान- IIII + भगण (6) + गुरु
IIII SII SII SII SII SII SII +S
सहज रहा मन पीर सुनी हिय सन्मुख साहस आस परे,
नहि हिय अश्रु अटाय जबै दृग दारुण दैहिक हास करे।
अविरल तीव्र प्रवाह अरू घट कालहि रूप निहार रही,
मरघट जे हिय आँखर सुप्त निशा सुधि त्याग प्रहार रही।
शशि लघु रूप छटा तिह नाहि बिसारि सकूँ दुइ नैनन ते,
प्रिय परिचारि नही हिय तोर प्रभाव इहाँ किह कारन ते।
सरस सुधारस नाहि प्रमाण दयो जन जाहि विचारन जे,
शिथिल शिला जस एकटकी तिह होत प्रपंच दुशासन जे।
लखि परिहार विहार मनै मन अंकुश नाहि शिखी जिय मा,
तजि हिय आस विलास भई पिकि जे स्वर जानि जुरे हिय मा।
मन नहि शांति अशांति विभा लखि छद्म सुसज्जित सार सखी,
अलक महावर पैंजनि ते हिय पावस मंजुल हार सखी।
©लवी द्विवेदी
अद्भुत अप्रतिम छंद सृजन🙏🙏
जवाब देंहटाएंसादर आभार भैया 🙏
हटाएंवाह । अप्रतिम 👌👌👌👌👌
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर 🙏
हटाएंउत्तम मनहर छंद सृजन.. वाह्ह
जवाब देंहटाएंसादर आभार सर जी 🙏🙇♀
हटाएंअद्भुत 👏👏👏👏
जवाब देंहटाएंकवियत्री को नमन
आभार भैया 🙏
हटाएंअप्रतिम छंद सृजन दीदी 👏👏🙏
जवाब देंहटाएंधन्यवाद भैया
हटाएंअद्भुत अप्रतिम शैल सुता छंद 👏👏👏💐💐💐💐
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद मैम🙏
हटाएंनमन है आपकी लेखनी को... 🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
जवाब देंहटाएंसादर आभार भाई जी 🙏
हटाएंAdbhut adutye 🙏🙏
जवाब देंहटाएंअद्भुत 🙏🏻👌👌👌
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