ग़ज़ल ©प्रशान्त
वज़्न- १२२२ १२२२ १२२२
कहीं जाती नहीं राह-ए-तलब मेरी ।
यही बस एक आदत है अजब मेरी ।
तुम्हारे इश्क़ में हूँ बा-अदब तुमसे,
वगरना शख़्सियत है बे-अदब मेरी ।
ये मुर्दा पूछता था, जब वो ज़िंदा था,
बुझेगी प्यास कैसे और कब मेरी ?
करो! नफ़रत करो मुझसे, मगर सुन लो,
मुहब्बत और नफ़रत है ग़ज़ब मेरी ।
हर-इक इंसान की गफ़लत यही तो है ,
ये दुनिया कल किसी की थी, है अब मेरी ।
‘ग़ज़ल’ इस ज़िंदगानी का सबब क्या है ?
चली ये जाएगी क्या बे-सबब मेरी ?
© प्रशांत ‘ग़ज़ल’
बेहतरीन बेबाक़ गज़ल 💐
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा ग़ज़ल 💐
जवाब देंहटाएंबेहतरीन ग़ज़ल सरजी🙏🙏
जवाब देंहटाएंकमाल की ग़ज़ल हुई है भाई जी🙏
जवाब देंहटाएं