ग़ज़ल ©परमानन्द भट्ट
सूने रहे हैं रात भर रस्ते दयार के
फिर कौन जगमगा गया दीपक मज़ार के
रोते रहे जो उम्र भर हम ग़ैर के लिए
लगता है अब वो थे सभी आँसू उधार के
आया नहीं वो रात भर जिसकी तलाश थी
गुज़रा था तन्हा चांद भी शब को गुज़ार के
जब भी बना मैं बोझ तो उसने सहा नहीं
फैंका था एक पल में ही रिश्ता उतार के
थे और लोग मर गये जो इंतज़ार में
अब कौन बाट देखता रस्ता बुहार के
उस पालकी के भाग्य में क्या है लिखा हुआ
हासिल हुए नहीं जिसे कंधे कहार के
जब वो हमारे साथ थे मौसम था ख़ुशनुमा
अब भी 'परम' को याद है दिन वो ख़ुमार के
©परमानन्द भट्ट
बेहद उम्दा ग़ज़ल सरजी👌
जवाब देंहटाएंबेहतरीन गजल सर,🙏
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत गज़ल सर
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत ग़ज़ल सर💐
जवाब देंहटाएंक्या कहने सर🙏
जवाब देंहटाएंबेहतरीन गज़ल 💐🙏🏼
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