ग़ज़ल ©गुंजित जैन
शोख़ हवा में महका-महका संदल होता जाता है,
तुमको छूकर कपड़ा-कपड़ा, मख़मल होता जाता है।
जाने कितने खंज़र इन दो पैनी नज़रों में होंगे,
जो भी तुमको देखता है बस घायल होता जाता है।
इतनी मेहनत से कागज़ पर हर्फ़-हर्फ़ मैं लिखता हूँ,
हर्फ़ निकल हर कागज़ से पर पागल होता जाता है।
चमक माँगता रहता है शब का अंधेरा तारों की,
फिर उस से मिलकर आँखों का काजल होता जाता है।
जाने कब तुम आओगे ये सोच-सोचकर मेरा दिन,
शामों में ढल जाता है और फ़िर कल होता जाता है।
याद तुम्हारी आती है तब मेरी आँखों का जोड़ा,
ख़ुश्क ज़मीं पर बारिश करता बादल होता जाता है।
दूर तलक मुझको इसकी झनकार सुनाई देती है,
नाम तुम्हारा कोई खनकती पायल होता जाता है।
इसके हिस्से-हिस्से को पलकों पे सजाकर रखते हैं,
यार तुम्हारा हर इक नखरा काजल होता जाता है।
मेरे बाद मेरे इन अशआरों का क्या होगा गुंजित?
यही सोचकर बेसुध मेरा पल-पल होता जाता है।
©गुंजित जैन
बहुत सुन्दर ग़ज़ल भाई👌
जवाब देंहटाएंसादर आभार भाई जी
हटाएंसादर आभार, नमन लेखनी।
जवाब देंहटाएंवाह, बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल 😍😍
जवाब देंहटाएंसादर आभार🙏
हटाएंबहुत ही सुंदर एवं भावपूर्ण ग़ज़ल 👏❤
जवाब देंहटाएंसादर आभार।
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत बेहद मख़मली गज़ल 💐
जवाब देंहटाएंसादर आभार मैम🙏
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