आवाज़ें और गहराईयांँ ©रेखा खन्ना


जो आवाज़ें गहराइयों में उतर कर खो जाती है

उनकी ध्वनि उथले पानी में सुनाई नहीं देती हैं उन्हें सुनने के लिए उसी गहराई में खुद को डुबाना होगा पर क्या डूबने के बाद उस ध्वनि की तरंगें हमारे इंतज़ार में रूकी मिलेंगी यां फिर पानी से मिल कर एक साज़िश रच लेंगी कि जैसे ही ये शख्स अंदर आने की कोशिश करें तभी इसके फेफड़ों में भर जाना और घोंट देना दम ताकि फिर कभी गहराइयों को छोड़कर बाहर ना निकल सके।


कभी कभी ऊपर से शांत दिखने वाला पानी अंदर ही अंदर कई साजिशें रच कर बैठा होता है कि जैसे ही कोई उनमें उतरने की कोशिश करे, उसे अंदर ही अंदर तक खींच ले ताकि वो भी अपने अकेलेपन का जहर कहीं तो उतार सके।

जाने ऊपर से शांत दिखने वाला पानी अपने अंदर कितनी कहानियां, वेदनाएं और गुमनाम लाशों का बोझ समेटे हुए है और कहना चाहता है पर अफसोस उसकी दास्तान सुनने वाला कोई नहीं है।


कभी बैठना किसी पोखर यां तालाब के किनारे और गौर से देखना पानी को टकटकी लगाकर, बिना पलकों को झपकाए। स्थिर पानी में हलचल होगी और तरंगे बीच में से उठ कर किनारे की ओर बढ़ेगी ऐसे जैसे वो बात करने के आ रही हैं। कभी उनसे बातें कर के देखना वो शांत हो जाएंगी ऐसे जैसे बड़ी गंभीरता से हमारी बात सुन और समझ रही हैं।


जाने कितने तालाब, पोखर, नदियां और समंदर अपना दुःख और तकलीफ़ बाँटने के इंतज़ार में बूढ़े हो चुके हैं पर अब तक कोई उनके पास दो घड़ी बैठा ही नहीं उनकी व्यथा यां खुशी सुनने को। 


©रेखा खन्ना

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