कविता-कविता ©संजीव शुक्ला
नमन, लेखनी
कविता कवि का..अंतर्मन द्वार बनी l
दृग से बहकर निकली जलधार बनी ll
अति दुसह वेदना.... रक्त प्रवाह बनी,
ज़ब रुधिर शिरा में कण-कण बहतीं हैँ l
कुछ कष्ट पराये,....दुख कुछअपनों के,
ज़ब हृदय तंत्रिका..... दुर्बल सहतीं हैँ l
आघात अदृश्य असंख्य शूल मन पर,
पीड़ा दायक क्षण-क्षण जीवन दुष्कर l
हो व्याप्त व्यथा,..ज़ब प्राण,चेतना में ,
विष दंश गड़ाए हों.... लाखों विषधर l
ज़ब कालकूट का... काट न हो कोई,
कविता अस्फुट स्वर का आधार बनी ll
ज़ब प्राण वायु में हो-होकर मिश्रित,
नित पीर स्वास बन,हृदय प्रवेश करे l
प्रति स्पंदन अस्फुट मर्मर ध्वनि कर,
संताप हृदय में..... नित्य निवेश करे l
अभिव्यक्ति द्वार पट पर लटके ताले,
घन घोर मेघ.... उर-नभ छाये काले l
ज़ब गिरा क्षीण हो, शब्दहीन निर्बल,
व्याकुल करते मन, भाव प्रलय वाले l
मसि समसि सहारा मात्र शेष हो ज़ब,
पृष्ठों पर भावों का....... विस्तार बनी ll
कविता कवि का..अंतर्मन द्वार बनी l
दृग से बहकर निकली जलधार बनी ll
©संजीव शुक्ला 'रिक्त'
नमन लेखनी
जवाब देंहटाएंबेहद सुन्दर कविता सरजी👌👌
जवाब देंहटाएंकविता कवि के अंतर्मन का द्वार बनी... वाह🙏
जवाब देंहटाएंअति उत्कृष्ट एवं प्रभावशाली कविता 💐🙏🏼
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