बिखरे पत्ते ©गुंजित जैन

 शाम का वक्त था, और अक्टूबर का महीना। अक्टूबर से ही अंदाज़ा लग गया होगा कि मौसम पतझड़ का था। 

मैं, वहाँ बाग़ में बैठा था, एक बड़े पेड़ की छाँव के नीचे लगी पत्थर की बेंच पर। धीरे-धीरे उस पेड़ के पत्ते गिरकर बिखर रहे थे। कुछ मेरे बालों में उलझे पड़े थे, कुछ बेंच पर गिरे थे, और वो रास्ता तो अपना रंग बदलकर पीला रंग धारण कर ही चुका था। खैर! मैं तो अपने अलग ख़यालों में खोया हुआ था।


अचानक ख़यालों के बीच दस्तक देते हुए किसी की आवाज़ आई "सुनो!"। उस पतझड़ के सन्नाटे में, आवाज़ करते सूखे पत्तों के शोर के बीच से, किसी तीर की तरह उन आवाज़ों को छेद कर आगे बढ़ती मेरे कानों तक वो आवाज़ पहुंची।

मैं पीछे मुड़ा। लग तो रहा था कि अब भी ख़यालों में हूँ, मगर ख़यालों से निकलकर वो शख़्सियत मेरे सामने खड़ी थी।


"क्या हम यहाँ बैठ जाएँ?" वो धीमी-सी आवाज़ में बोली। वो आवाज़ मीठी तो हमेशा से ही थी, धीमे स्वर में और भी मीठी होकर मुझ तक आ रही थी।

"हाँ, हाँ ज़रूर" मैं बेंच के बीचों-बीच बैठा था, मगर ये सुनते ही दाहिनी तरफ सरककर बैठ गया। वो बाएं तरफ बैठी।


"कैसे हो?" वो उसी धीमे स्वर को बरक़रार रखते हुए, अपने चेहरे पर आ चुके बालों की लटों को पीछे कर, और मुझसे ज़रा नज़रें चुराकर बोली।

"मैं...मैं ठीक हूँ। तुम बताओ" थोड़ी हिचकिचाहट के साथ मैं बोला।

"हम भी ठीक हैं। वैसे, बुरा न मानो तो एक बात पूछें?" उसके चेहरे पर भी हिचकिचाहट साफ़ नज़र आने लगी थी।

"हाँ पूछो" मैं बोला। 

"क्या अब भी हमसे प्यार करते हो?" इतना कहकर वो ख़ामोश हो गई। मेरे जवाब का इंतज़ार कर रही थी। मगर मैं... मुस्कराहट के अलावा कुछ दे ही न पाया। 

"चुप क्यों हो? कहो..." मुझे ख़ामोश देखकर वो पूछी।


मैं और मुस्कराया। ज़मीन से एक पत्ता हाथ में उठाया, फिर कहा "इन बिखरे पत्तों को देख रही हो। मैं यहाँ हर रोज़ आता हूँ। कुछ दिन पहले तक ये उस डाल पर लगे लहरा रहे थे, खिल रहे थे। मगर अब... सब यहाँ बेजान से पड़े हैं। जानती हो क्यों? क्योंकि डाल के बिना इन्हें अपनी ज़िन्दगी, ज़िन्दगी नहीं लगती। वो जब तक उस डाल के साथ हैं तब तक खिलते हैं, उसके बाद बेजान हो जाते हैं। क्योंकि, उन्हें इस डाल का साथ बहुत पसंद है।


ठीक उसी तरह, मुझे तुम्हारा साथ बहुत पसंद है। देखो न, अभी तुम सामने हो, तो बेवजह मुस्करा रहा हूँ। वरना कई कई बार तो मुस्कराने की हर वजहें फीकी पड़ जाती हैं।"

वो ख़ामोश थी। शायद उसके पास अब जवाब नहीं था।

"कुछ बोलोगी?" मैंने सवाल किया।

वो अब तक मुझसे नज़रे नहीं मिला पाई थी। 


पर अचानक, नज़रे उठाकर, मेरी नज़रों से नज़रें मिलाकर बोली "देखो, हमें ज्यादा बातें घुमाना नहीं आता। हाँ, तब मुझमें समझ नहीं थी, पर अब है। इतनी सी बात है, कि हम तुमसे प्यार करने लगे हैं।" एक बार में उसने अपनी सारी झिझक, सारी हिचकिचाहट पतझड़ के सूखे पत्तों की तरह रौंद दी। इतना खुलकर बोलते शायद मैंने उसे पहली बार देखा था। इस रफ़्तार से वो एक साँस में बोली जैसे बोलकर उसको एक ट्रेन पकड़नी हो, और ट्रेन सिर्फ उसी के लिए रुकी हुई हो।


"अच्छा?" मैं साधारण दिखने की कोशिश कर रहा था।

मगर अंदर तो भावों का एक समंदर उमड़ रहा था। 

"रहने दो, तुम्हारा अभिनय अच्छा नहीं। हुँह" अपने हाथों को बाँधते हुए, दूसरी तरफ़ मुँह करते हुए वो बोली।


"है न? मुझे भी यही लगता है" इतना कहने तक मेरा कोना बदल गया था। दाएं कोने से बाएं कोने तक की 4 फ़ीट की दूरी तय करने में मैंने 4 पल भी नहीं लगाए।

अचानक एक हाथ अपने कंधे पर देखकर पहले वो ज़रा घबराई। हाथ मेरा है, यह जानकर शर्माने लगी। 

मेरे हाथ हटाते ही वो मायूस सी हो गयी और यही भाव देखकर मैंने फिर हाथ उसके कंधे पर रखा। उसके चेहरे पर मानो खुशियां वापस लौट आईं थीं।


उसी हाथ के सहारे उसने मेरे कंधे पर सिर रख लिया, और वो हाथ अब तक कंधे से माथे तक आ चुका था। सूरज भी जा चुका था। चाँद और सितारों के सिवा वहाँ बचे मैं और वो, या यूँ कहूँ, कि सिर्फ़ "हम"।


©गुंजित जैन

टिप्पणियाँ

  1. आहा, अत्यंत सुंदर तथा रोचक 🧡✨🙏

    जवाब देंहटाएं
  2. भावनाओं का सुंदर चित्रण करती उत्कृष्ट लघुकथा 💐

    जवाब देंहटाएं
  3. मासूम भावनाओं से भरी हुई बेहद खूबसूरत कहानी बेटा 🌺🌺🙏
    सरोज गुप्ता

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

कविता- ग़म तेरे आने का ©सम्प्रीति

ग़ज़ल ©अंजलि

ग़ज़ल ©गुंजित जैन

पञ्च-चामर छंद- श्रमिक ©संजीव शुक्ला 'रिक्त'