गद्य - तेरा आना ©सम्प्रीति
नमन, माँ शारदे
नमन, लेखनी
रेगिस्तान की धूप में शीतल जल-सा तेरा आना,
अक्ष तेरा बनता हो जैसे मेरा ही आईना,
देखकर जिसे अक्सर ही भटक जाता हूं मैं,
ऐसी सुंदर सी तुम एक मृगतृष्णा।
देखो यूँ हंसा ना करो
अधरों को बंद ही रखो तो अच्छा,
जो गालों पर गड्ढे हैं कयामत ढाते हैं,
ठहर जाता हूं वहीं बनकर तेरा दीवाना,
अक्ष तेरा बनता हो जैसे मेरा ही आईना।
यूँ नज़रें मिलाकर मुस्कुराया ना करो
धड़कनें ठहर जाती हैं अचानक ही,
ये जो आँखें हैं जादू चलाती हैं
बहक जाता हूँ मैं बनकर कोई परवाना,
रेगिस्तान की धूप में शीतल जल-सा तेरा आना,
कोई पूछे अगर मुझसे तेरा फ़साना
याद आज भी आता है भीड़ से छिपकर हमारा अकेले मिल जाना,
ज़िक्र तेरा अब भी करता है मुझे सबसे बेगाना,
देखकर जिसे अक्सर ही भटक जाता हूं मैं
ऐसी सुंदर सी तुम एक मृगतृष्णा।
रेगिस्तान की धूप में शीतल जल-सा तेरा आना,
अक्ष तेरा बनता हो जैसे मेरा ही आईना।
©सम्प्रीति
सादर आभार लेखनी 🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत दीदी🙏 सुंदर भाव
जवाब देंहटाएंअत्यंत मनहर भावपूर्ण सार्थक रचना
जवाब देंहटाएंबेहद उम्दा रचना 🙏🙏
जवाब देंहटाएंअत्यंत सार्थक नज़्म 👏🙏
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत और कोमल भाव 💐
जवाब देंहटाएंकितना सुंदर, सटीक लिखा है❣️❣️✨
जवाब देंहटाएंमृगतृष्णा ... वो तृष्णा जो कभी पूरी नहीं होती है वो मन को सदा ही भ्रमित करके रखती है।
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत रचना 👏👏
सुंदर रचना l 🥀🥀
जवाब देंहटाएंमे रा नाम शो नहीं हो रहा
हटाएंवाह वाह वाह बेहद खूबसूरत भावपूर्ण 👌👌❤❤❤💐💐💐
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