कवि विहंग ©लवी द्विवेदी
अक्षर भी साथ नयन की ज्योति तूलिका,
आ बैठ बिछा नव शब्दों के आसन को।
कछु निरख कछुक पुनि भाव लिये गगरी में,
उर कवि विहंग बन चला प्रकृति दर्शन को।
हो घोर तिमिर अल्हण भावुक रजनी से
वो घूमा हास्य मधुप मदिरा के मद में,
थे ठाठ कहीं था रुदन अकिंचन विस्तृत,
देखा जग में लघु दीर्घ विचारक पद में।
वो बैठ अकेले पकड़ शांति प्रिय कोना,
हो लिया कभी बृह्मण्ड कभी धरणी पर।
हो बाग-बाग दौड़ा पोखर सागर क्षण,
आ लौट गिरा कछु व्यथित व्यग्र करणी पर।
ले प्रश्न परस्पर प्रीत भरे उत्तर हों,
थी खूब कल्पना प्रभु का वर्णन कीन्हा।
कछु बिछरे आंगन डोल गए कछु आसित,
कछु दारुण दुख कर्तव्य विमुख कर दीन्हा।
भावों की भेंट अनन्य रूप शब्दों से,
पर तनिक विचारे हो का भ्रांति निराशा।
थे मिले बहुत संगी पर संगिनि कविता,
है एक कवी क्या कुल उसका क्या आशा।
©लवी द्विवेदी 'संज्ञा'
कवि हृदय की अद्भुत विवेचना बेटा 👌👌❤❤💐💐
जवाब देंहटाएंअत्यंत उत्कृष्ट एवं संवेदनशील कविता 💐
जवाब देंहटाएंअद्भुत कविता👌👌
जवाब देंहटाएंअत्यंत उत्कृष्ट अद्भुत कविता
जवाब देंहटाएंथे मिले बहुत संगी पर संगिनि कविता,
जवाब देंहटाएंहै एक कवी क्या कुल उसका क्या आशा....क्या कविता है, वाहहहहहहह।