गजल ©हेमा काण्डपाल "हिया"

नमन, माँ शारदे 

नमन, लेखनी 



तुम झूठ ही कहते हो हुनर ढूँढ रहे थे,

हम मिल न तुम्हें जाते अगर ढूँढ रहे थे।


ढूँढा था उसे झील में तारों में कली में,

रक्खा ही नहीं था वो जिधर ढूँढ रहे थे।


जब देख रहे थे न सभी पाँव के छाले,

हम पाँव में कोई तो कसर ढूँढ रहे थे।


इसमें है ख़ता उसकी या फिर दोष है मेरा,

वो पास ही बैठा था मगर ढूँढ रहे थे।


ये लोग उसे बेच के ले आएं हैं रोटी,

तुम लोग क़िताबों में हुनर ढूँढ रहे थे।


दुनिया की नई भीड़ में हम क़ैद परिंदे,

कई साल से अपना ही शहर ढूँढ रहे थे।


सब लोग थे ढकने में लगे चेहरा कफ़न से,

हम मूँद के आँखों को सफ़र ढूँढ रहे थे।

©हेमा काण्डपाल "हिया"

टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल हुई है दीदी। ये लोग उसे बेच के ले आएं हैं रोटी...तुम लोग क़िताबों में हुनर ढूँढ रहे थे... वाहहहहहह

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  2. बाकमाल गजल हुई है, वाह वाह वाह❣️✨🙏

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  3. बेहतरीन, बेबाक़, बेमिसाल गज़ल 💐
    हर एक अश़आर लाजवाब 💐

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  4. बेहतरीन ग़ज़ल हिया जी, एक एक शेर कमाल है🙏🙏🙏

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