ग़ज़ल ©शिवाँगी "सहर"

नमन, माँ शारदे 

नमन, लेखनी 

बहर- बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम

1222 1222 1222 1222



भटक कर ज़िंदगी से मंज़िल अपनी भूल जाती है,

कहाँ इसका किनारा है ये कश्ती भूल जाती  है।


निकल जाती है इसकी उम्र सब रिश्ते निभाने में,

कही किसने थी माँ वो बात कड़वी भूल जाती है।


उसे सब याद रहता है मेरी आहट मेरी बोली,

मगर हर बार मेरा नाम दादी भूल जाती है।


किसी शिकवे के सारा दिन निभाती है ख़ुशी से वो, 

बक़ा होती है क्या ख़ुद की ये पत्नी भूल जाती है।


दबा लेती है ख्वाहिश देखकर वो मुफ़लिसी आपनी,

खिलौने औ किताबें क्या हैं बेटी भूल जाती है।


निशाना साध लेती है फ़क़त मासूम लोगों पर,

ये दुनिया तैश में तर्ज़-ए-अदाई भूल जाती है।

©शिवाँगी "सहर"

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