विरह ©अभी मिश्रा

 

बेरंग   थीं   उस   रोज़    फिज़ाएं, 

उस  रोज़  सुहानी  शाम  ना   थी l

एक    लम्हा    ऐसा    ना    बीता, 

जिस पल को घड़ी बदनाम ना थी l


वो   पास   था   मेरे   इस   लम्हे,

अगले   लम्हे    में     ना    होता l

ऐसे    हालातों      में     आख़िर,

मैं  करता  क्या   जो   ना   रोता।


उस  रोज़  को   मैंने   सजदे   में,

बरसों  तक  रब   से   माँगा   था l

एक  चेहरे   की    तस्वीरों    को,

दिल - ओ - दीवार  पे  टांगा  था।


तब  वक्त  जो   दौड़ा  जाता   था,

तुझ बिन  अब   जैसे   ठहरा   है l

मदमस्त  हुआ  सा   फिरता   था,

उस  वक्त  पर  जैसे    पहरा   है।


उस  रोज़  को   कहता   मैं   तुमसे,

अपने  इस दिल  का   हाल,  मगर l

मैं   दोहरा   दूंगा   फ़िर   वो    पल,

हम फ़िर जो मिले इस साल  अगर।

                 ©अभी मिश्रा

टिप्पणियाँ

  1. आप सभी का हृदयतल से धन्यवाद

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