जिंदगी का नशा ©रेखा खन्ना

 जिंदगी को जीने का नशा

हवाओं में घुलते ज़हर पर 

भारी पड़ गया

मरते मरते भी देखो

मैं कैसे जी गया।


हर आती जाती

धीमी सांस पर मेरा

हौसला बुलंद हो उठा

ना मन हारने दिया 

ना मन को थकने ही दिया

हर जाती सांस को

वापस लौटने पर मजबूर कर 

देखो मैं कैसे जी गया।


जिस्म हार मान कर 

थकता जब भी दिखा

जिस्म को झिंझोड़कर

उठने को सख्ती से कह दिया

मरता क्या ना करता

धीरे धीरे ही सही पर 

जिस्म में एक तरंग भरता गया।


माना अभी नाज़ुक है 

सांसों की डोर ज़रा

पर मैं भी ठान कर बैठा हूँ

इसे फिर सामान्य कर

मैं फिर से जी जाऊंँगा।


वक्त मुझ पर जब भी

हंँसता हुआ दिखता है

मैं जोर से सांँसें भर 

सीना फुलाकर उसे

हताश कर देता हूंँ

फिर मैं अपनी 

जहरीली मुस्कान से

वक्त का हौंसला पस्त 

कर अपनी जीत 

का जश्न मनाता हूँ।


हवाओं के जहर को

मैं अपनी जहरीली मुस्कान से

नित दिन मात दे रहा हूंँ

जहर को जहर ही काटेगा

ये सोच कर मैं 

कुछ सांसें और जी गया।

               @ दिल के एहसास। रेखा खन्ना

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